।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
सन्त और उनकी सेवा





रही आज्ञा-पालनकी बात । सो वे प्रायः कोई बात आज्ञाके रूपमें नहीं कहते । वे अपनी नम्रताके कारण जब किसी व्यक्तिको कुछ कार्य करनेके लिये कहते हैं तब प्रायः ऐसा संकेत किया करते हैं कि अमुक परिस्थितिमें शास्त्रोंकी ऐसी आज्ञा है, भगवान्‌की ऐसी आज्ञा है, सन्तोंने ऐसा कहा है और किया है आदि-आदि । पर यह निश्चित है कि उनके कथनानुसार करनेसे लाभ अवश्य होता है; अतएव वे जो कुछ निर्देश करें उसे उन्हींकी आज्ञा समझकर पालन करें तो वे उसका विरोध नहीं करते । यह उनकी हमारे प्रति उदारता है, कृपा है, यह उन्होंने हमारे लिये छुट दे रखी है । शरीरकी पूजासे उनके वचन अधिक महत्त्वके हैं । अतएव वचनोंकी ही प्रधानता देनी चाहिये । एक सन्त थे । उनके पास रहनेवाले श्रद्धालु व्यक्तियोंमेंसे एक व्यक्तिकी एक दिन सन्तने परीक्षा लेनी चाही । वे बोले‒‘मेरी कमरमें दर्द हो रहा है, जरा अपने पैरसे इसे दबा दो ।’ श्रद्धालुने कहा‒‘महाराज ! आपके शरीरपर पैर कैसे रखूँ ?’ सन्तने तुरन्त उत्तर दिया‒‘ठीक है, मेरे शरीरपर तो तुम पैर नहीं रखते, पर मेरी जबानपर तो पैर रख दिया न ?’ यह एक दृष्टान्त है । इससे हमें यह शिक्षा लेनी चाहिये कि सेवामें शरीरकी अपेक्षा वचनोंके पालनको अधिक महत्त्व दें । हाँ, यह सम्भव है कि हम सन्तके वचनका पूरा पालन न कर सकें, किन्तु यदि मनमें वचन-पालनकी नीयत है तथा उसके लिये यथा-सामर्थ्य प्रयत्न भी किया गया है तो फिर चाहे उसका अक्षरशः पालन न भी हो पाया हो तो भी उससे बहुत लाभ होता है ।

यदि सन्तोंके वचनोंका भाव कहीं पूर्णरूपसे समझमें नहीं आये तो नम्रतापूर्वक उन्हींसे पूछकर समाधान कर लेना चाहिये; पर समझमें आ जानेपर पालन करनेमें किंचिन्मात्र भी कमी नहीं लानी चाहिये । सन्तके वचन-पालनमें यदि कहीं उनकी सेवाका भी त्याग करना पड़े तो वह भी कर देना चाहिये । सेवा करनेसे जब लाभ होता है तो सेवा-त्यागसे अधिक लाभ होना चाहिये, क्योंकि जो कीमती चीज है, उसका त्याग उस चीजसे भी बड़ा है, फिर यह त्याग यदि सन्तकी आज्ञासे ही किया जाता है, तो वह और भी अधिक महत्त्वकी वस्तु है । सच्चा श्रद्धालु इसमें क्यों चुकेगा । हाँ, एक बात है जो सेवाके कष्टसे बचकर सेवाका त्याग करते हैं, वे तो सेवाके महत्त्वको जानते ही नहीं । उनको तो सेवा करनेमें कष्टका अनुभव होता है । इसलिये वे उस लाभसे वंचित रहते हैं । सन्त कभी इसीको किंचिन्मात्र भी कष्ट देना नहीं चाहता, इसलिये वह ऐसे व्यक्तियोंसे सेवा क्यों करवायेगा; क्योंकि उनको सेवा करानेकी कोई भूख तो है ही नहीं । जो लोग दूसरोंसे अपनी सेवा करवाना चाहते हैं, उनके अन्तःकरणमें स्वार्थ और अहंकारके कारण यह नहीं सूझ पड़ता कि किसको क्या कष्ट और हानि हो रही है; किन्तु सन्तोंके निःस्वार्थ हृदयमें तो प्रकाश है । वे तो जानते हैं कि कौन व्यक्ति सेवामें सुखका अनुभव करता है और कौन दुःखका ।

सत्संगके लिये तो सन्त स्वयं अपनी ओरसे चले जाते हैं; क्योंकि प्रेमी जिज्ञासुओंके पास जानेसे भगवत्-वाक्योंका मनन, विचार और अनुशीलन होता है, जो उन्हें अत्यन्त प्यारे हैं । इतना ही नहीं, वे अपना संग करनेवाले व्यक्तिका उपकार भी मानते हैं कि इसके कारण हमारा कुछ समय भगवच्चर्चामें व्यतीत हुआ । काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीसे कहा‒‘ महाराज ! मुझपर आपकी बड़ी कृपा हुई, जो मुझे सत्संग दिया ।’

तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा । नाथ कीन्ह मो पर अति छोहा ॥
पूँछिहुँ राम कथा अति पावनि । सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥
(रामचरितमानस)