।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७५, मंगलवार
                       हरियाली तीज
नाम-महिमा


दक्षिणमें पण्ढरपुर है । वहाँ नामदेवजी महाराज, ज्ञानदेवजी महाराज, सोपानदेवजी आदि कई नामी सन्त हुए हैं । बड़ी विचित्र उनकी वाणी है । वहाँ दक्षिणमें चोखामेला नामका एक चमार था । विट्ठल-विट्ठल-विट्ठल‒ऐसे भगवान्‌का नाम जपता था । पण्ढरपुरके पास ही एक मंगलबेड़ा गाँव है । उसी गाँवमें वह रहता था । वहाँ एक मकान बन रहा था । उस मकानमें चोखामेला काम कर रहा था । मजदूरी करके वह अपनी जीविका चलाता था । अचानक वह मकान गिर पड़ा । मकान बहुत बड़ा था, गिर गया और उसमें चोखामेला दब गया । उसके साथ कई आदमी दबकर मर गये । उनको उसमेंसे निकालने लगे तो निकालते-निकालते कई महीने लग गये । उन सबको निकाला तो उनकी केवल हड्डियाँ पड़ी मिलीं । अब किसकी कौन-सी हड्डियाँ हैं, इसकी पहचान नहीं हो सकती । थोड़े दिनमें तो शरीरकी पहचान भी हो जाय । अब चोखामेलाकी हड्डियोंकी पहचान कैसे हो ? तो शायद नामदेवजीने कहा हो कि भाई, उनकी हड्डियोंको कानमें लगाकर देखो । जिसमें विट्ठल-विट्ठल नामकी ध्वनि होती हो, वह हड्डी चोखामेलाकी, यह पहचान है । कितने आश्चर्यकी बात है कि मरनेके बाद भी हड्डीसे नाम निकलता है ! भगवान्‌का नाम लेते-लेते भक्त नाममय ही हो जाते हैं‒‘चंगा राख तन, मन, प्राण, रहीये नाममें गलतान ।’ बस, सब लोग इसमें गलतान हो जाओ, इस नाममें तल्लीन हो जाओ । तत्परतासे नाम लेनेवाले ऐसे सन्त हुए हैं ।


अर्जुनके भी शरीरमेंसे भगवान्‌का नाम निकलता था । एक दिन अर्जुन सो रहे थे और नींदमें ही नाम-जप हो रहा था । शरीरके रोम-रोममेंसे कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण नामका जप हो रहा था । नामको सुन करके भगवान् श्रीकृष्ण आ गये, उनकी स्त्रियाँ भी आ गयीं । नारदजी आ गये, शंकरजी आ गये, ब्रह्माजी आ गये, देवता आ गये । भगवान् शंकर नाम सुन-सुन करके नाचने लगे, नृत्य करने लगे । अर्जुनके तो बेहोशीमें‒गाढ नींदमें भी रोम-रोमसे कृष्ण-कृष्ण निकलता है । इसमें कारण यह है कि जिसका जो इष्ट होता है, वह उसीका नाम जपता है, तो वह नाम भीतर बैठ करके रग-रगमें होने लगता है । हरिरामदासजी महाराजकी वाणीमें आता है‒‘रग-रग आरम्भा, भये अचम्भा छुछुम भेद भणन्दा है ।’ सन्तोंकी वाणी आपलोग पढ़ते ही हो । उसमें आपलोग देखो । ऐसा उनका भजन होने लगता है, क्यों ? उनकी वह लगन है । वे उसीमें ही तल्लीन हो गये । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ नाममें लग गयीं, प्राण उसमें लग गये । शरीरमात्रमें नाम-जप होने लगा । कितने महान्, पवित्र, दिव्य उनके शरीर थे कि उनको याद करनेमात्रसे जीवका कल्याण हो जाय । वे तो नाम-रूप ही बन गये, भगवत्स्वरूप बन गये । नारदजी महाराज अपने भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं कि भगवान् और भगवान्‌के जनोंमें भेद नहीं होता‒‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’, क्योंकि वे उनके हैं, उस परमात्माके अर्पित हो गये हैं‒‘यतस्तदीयाः ।’