।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
        करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



४. निषेधात्मक साधन

साधन दो तरहका होता है‒निषेधात्मक और विध्यात्मक । विवेक निषेध करता है और करण (क्रिया) विधि करता है । अतः निषेधात्मक साधन विवेकप्रधान अर्थात् ‘करणनिरपेक्ष’ होता है और विध्यात्मक साधन क्रियाप्रधान अर्थात् ‘करण-सापेक्ष’ होता है । परमात्मतत्त्व वास्तवमें करणनिरपेक्ष है[1], अतः उसकी प्राप्ति निषेधात्मक साधनसे तत्काल होती है, जब कि विध्यात्मक साधनसे उसकी प्राप्तिमें देरी लगती है । निषेधात्मक साधन करनेवाला योगभ्रष्ट भी नहीं होता; क्योंकि निषेधात्मक साधनमें असत्, नाशवान्‌का तत्काल निषेध हो जाता है । परन्तु विध्यात्मक साधन करनेवाला योगभ्रष्ट हो सकता है; क्योंकि विध्यात्मक साधनमें असत्‌का सहारा लेना पड़ता है । अतः उसमें असत् (मन-बुद्धि-अहम्) की सत्ता बहुत दूरतक साथ रहती है ।

परमात्मतत्त्वको विधिरूपसे कभी प्राप्त नहीं कर सकते, प्रत्युत निषेधरूपसे ही प्राप्त कर सकते हैं । कारण कि परमात्मतत्त्व नित्यप्राप्त है । नित्यप्राप्तके अनुभवमें अप्राप्त संसारसे माना हुआ सम्बन्ध ही बाधक है । नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अन्वेषण होता है और अप्राप्त संसारका निर्माण होता है । अन्वेषणमें निषेधात्मक साधन चलता है और निर्माणमें विध्यात्मक साधन चलता है । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव संसारके सम्बन्धका निषेध (त्याग) करनेसे होता है । सबका निषेध करनेपर जो शेष रहता है, वही परमात्मतत्त्व है । तात्पर्य है कि असत्‌का निषेध (त्याग) करनेपर सत्‌तत्त्वकी विधि (स्थापना) करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । इसलिये सन्तलोग संसारका त्याग करते हुए परमात्मतत्त्वकी खोज करते हैं‒

ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः
                                   (श्रीमद्भा १० । १४ । २८)

न कर्मसे, न सन्तानसे, न धनसे, प्रत्युत केवल त्यागसे ही सन्तोंने अमरत्व प्राप्त किया है‒

न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्त्वमानशुः
                                                   (कैवल्य १ । २)

त्यागसे तत्काल परमशान्ति प्राप्त होती है‒

‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’   (गीता १२ । १२)



[1] परमात्मतत्त्वके विशेषण दो तरहसे कहे गये हैं‒निषेधात्मक और विध्यात्मक । अक्षर, अव्यक्त, अचिन्त्य, अचल, अव्यय, अविनाशी आदि विशेषण ‘निषेधात्मक’ हैं और सर्वव्यापी, कूटस्थ, ध्रुव, सत्, चित्, आनन्द आदि विशेषण ‘विध्यात्मक’ हैं । वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो परमात्माके विध्यात्मक विशेषणोंका तात्पर्य भी निषेधात्मक ही है; जैसे‒परमात्माको ‘सत्‌’ कहनेका तात्पर्य है कि वे ‘असत्‌’ नहीं हैं; ‘सर्वव्यापी’ कहनेका तात्पर्य है कि वे ‘एकदेशीय’ नहीं हैं आदि ।