।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                  




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा वि.सं.२०७७, रविवा

सदुपयोगसे कल्याण


कलकत्ताकी बात है । एक सज्जन दलालीका काम करते थे । वे कहते थे कि ये धनी आदमी सत्संग क्यों नहीं करते ? इनके पास बहुत धन है, बैठकर खायें तो भी अन्त नहीं आये, फिर भी सत्संग क्यों नहीं करते ? ऐसा वे कहा करते । अब उनके पास भी धन ज्यादा हो गया तो उनका भी सत्संगमें आना बन्द हो गया। अब सत्संगके लिये समय नहीं मिलता । उनसे बातें हुईं । पहले आपको दीखता था कि धनी आदमी सत्संग क्यों नहीं करते, अब आप क्यों नहीं करते ? करें कैसे, धन्धा बहुत बढ़ गया है, वक्त नहीं मिलता ।

सरोवरमें जैसे-जैसे पानी बढ़ता है, वैसे-वैसे कीचड़ भी बढ़ता है । पहले कम होता है, फिर ज्यादा होने लगता है । जैसे-जैसे धन बढ़ता है, वैसे-वैसे दरिद्रता भी बढ़ती है । परन्तु मनुष्यका उस तरफ ध्यान नहीं होता, विचार नहीं होता । साधारण आदमीको सौ या हजार रुपयोंकी भूख रहती है, पर हजार रुपयेवालेको हजारोंकी भूख रहती है । लखपतिको लाखोंकी और करोड़पतिको करोड़ोंकी भूख रहती है । ज्यों-ज्यों धन बढ़ता है, त्यों-त्यों भूख भी बढ़ती है । साधारण आदमीको लाखोंकी भूख नहीं रहती । परन्तु इस तरफ कोई देखता नहीं । यही देखते हैं कि अपने पास धन अधिक हो जाय तो मौज हो जायगी ।

भाइयो ! ध्यान दो । अधिक पैसोंकी आवश्यकता नहीं है । जितने पैसे आपके पास हैं, उन्हींका बढ़िया-से-बढ़िया उपयोग करें । उससे बड़ा भारी पुण्य होगा । अधिक पैसोंसे अधिक पुण्य होगा‒यह कायदा नहीं है । जितनी आपकी शक्ति है, जितना आप खर्च कर सकते हैं, उतने खर्च करनेसे आपका उद्धार हो जायगा । धनी आदमी बहुत खर्च करेगा, तब कल्याण होगा । साधारण आदमीका साधारण खर्चेसे कल्याण हो जायगा ।

युधिष्ठिरजी महाराजने बड़ा ही विलक्षण यज्ञ किया । उन्होंने दुर्योधनको खजानेपर रखा । बैर रखनेवालेके हाथमें खजाना दिया कि वह ज्यादा लुटायेगा तो यज्ञ बढ़िया हो जायगा । आजकल लोग खजानेपर कंजूस आदमीको रखते हैं, जो ज्यादा खर्च न करे । कंजूसीसे अपयश होता है । दुर्योधन दस गुना देते थे, जिससे सब तरफ बड़ी प्रशंसा हुई । ब्राह्मण-लोग प्रशंसा करने लगे कि वाह-वाह ! युधिष्ठिरजी महाराजने बड़ा भारी यज्ञ किया ! उसी समय वहाँ एक नेवला आया और मनुष्यकी भाषामें बोला कि इसी वनमें रहनेवाला एक ब्राह्मण-परिवारका जो यज्ञ मैंने देखा, उसके सामने यह यज्ञ कुछ नहीं है । उन्होंने पूछा कि क्या देखा ? नेवला कहने लगा‒ब्राह्मण, ब्राह्मणी, बेटा और उसकी बहू‒ये चार प्राणी इस वनमें रहते थे । वे बड़े शुद्ध ब्राह्मण थे । ब्राह्मण तपोधन होते हैं । त्याग ही उनका धन होता है । वे शिलोञ्छवृत्तिसे अपना जीवन-निर्वाह करते थे । खेतोंमें अनाज काटनेके बाद जमीनपर जो अन्न (ऊमी, सिट्टा आदि) गिरा पड़ा हो, वह भूदेवों (ब्राह्मणों)-के हकका होता है । उनको चुनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छवृत्ति’ है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
माघ पूर्णिमा वि.सं.२०७७, शनिवा

सदुपयोगसे कल्याण


संसारका राग, खिंचाव अज्ञानका चिह्न है, मूर्खताकी खास पहचान है‒‘रागो लिंगमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।’ जितने दर्जेका नाशवान्‌में खिंचाव है, उतने ही दर्जेका मूर्ख है । वृक्षके कोटरमें आग लगा दे और फिर ऊपरकी तरफ देखकर प्रतीक्षा करे कि वृक्ष कब हरा होगा, उसमें कब फल-फूल लगेंगे, तो यह मूर्खता ही है । इसी तरह संसारमें तो राग है और देखते हैं कि सुख-शान्ति मिलेगी, प्रसन्नता होगी ! यह होगा नहीं कभी ।

मनुष्य क्या करते हैं ? राग तो बढ़ाते जाते हैं और चाहते हैं शान्ति । इतना धन हो जाय तो सुख हो जायगा, इतनी सम्पत्ति हो जाय तो सुख हो जायगा । अरे भाई ! धन-सम्पत्तिके होनेसे सुख नहीं होता । आपको वहम हो तो परीक्षा करके देख लें । जिसके पास ज्यादा-से-ज्यादा धन हो, उससे मिलकर पूछो कि आपको किसी तरहका दुःख तो नहीं है ? किसी तरहकी अशान्ति तो नहीं है ? वह पोल निकाल देगा तो आपका समाधान हो जायगा !

एक घरमें चूहे बहुत हो गये । उनको मारना तो ठीक नहीं, पकड़कर दूर जंगलमें छोड़ दें, जहाँ सुरक्षित रहें‒ऐसा सोचकर चूहोंको पकड़नेके लिये तारोंसे बना पिंजड़ा ले आये । उसमें रोटीके टुकड़े रख दिये और उसको अँधेरेमें रख दिया । अब चूहे आते हैं और चारों तरफ चढ़ते हैं कि किसी तरहसे पिंजड़ेमें पड़ी रोटी मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ ! ढूँढ़ते-ढूँढ़ते दरवाजा मिल जाता है । उधर जाते ही स्प्रिंग लगी हुई पट्टी (बोझ पड़नेपर) नीचे झुक जाती है और चूहा पिंजड़ेमें चला जाता है । भीतर जाते ही पट्टी वापस ऊपर हो जाती है । इधर बाहर खटका लगता है और उधर चूहेके भीतर खटका लगता है । अब वह रोटी खाना भूलकर इधर-उधर दौड़ता है और बाहर निकलनेका उद्योग करता है कि कैसे निकलूँ कैसे ? बाहरवाले चूहे समझते हैं कि यह भीतरवाला चूहा बड़ी मौजमें है । अन्दर कितनी रोटी पड़ी है और कितनी मौजमें धूमता है । हम ही बाहर रह गये । उनमेंसे कोई दरवाजा ढूँढ़ लेता है और भीतर चला जाता है तो मुश्किल हो जाती है । दोनों पिंजड़ेके भीतर लड़ते हैं और इधर-उधर दौड़ते हैं । बाहरके चूहे देखते हैं कि ये तो मौज करते हैं, हम बाहर वञ्चित रह गये । इस तरह चूहे उसमें फँसते जाते हैं । यह पिंजड़ा तो दूसरोंका बनाया हुआ होता है । परन्तु जिस पिंजड़ेमें हम फँसते हैं, वह हमारा ही बनाया हुआ होता है ।

जिसके पास धन कम होता है, वे देखते हैं कि झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करके किसी तरहसे अधिक-से-अधिक धन इकठ्ठा कर लें तो हम सुखी हो जायँगे । धन हो जानेसे खूब मौज हो जायगी, आनन्द हो जायगा । जिनका विवाह नहीं हुआ है, वे देखते हैं कि विवाह किये हुए बड़ी मौजमें हैं, हम रीते ही रह गये । किसी तरहसे हमारा विवाह हो जाय ! जब उनका विवाह हो जाता है और पूछते हैं‒जै रामजीकी ! क्या ढंग है ? तब वे कहते हैं‒फँस गये ! बड़े शहरोंमें नौकरी करते हैं । अकेले होते तो कहीं भी रह जाते, पर अब बड़ी मुश्किल हो गयी ! बाल-बच्चोंको कहाँ रखें ? कैसे रहें ? उनकी पढ़ाई आदिका प्रबन्ध करना है । वे बड़े हो जायँ तो उनका विवाह करना है । बड़ी आफत आ जाती है । ऐसे ही लोग कहते हैं कि बड़े धनी आदमी हैं, बड़े सुखी हैं, बड़े आराममें हैं । उनके पास रहकर देखो । उनको रातमें चैनसे नींद नहीं आती । समयपर भोजन नहीं कर सकते । दोपहरके दो बज जायँ तो भी रोटी खानेकी फुरसत नहीं मिलती । रातमें ग्यारह-बारह बज जाते हैं । मेरे सामने अनेक उदहारण आये हैं । मैं केवल पुस्तककी बात नहीं कहता । देखी हुई बात भी कहता हूँ । पुस्तकोंकी बातें सच्ची हैं ही; क्योंकि ऋषि-मुनियोंने अनुभव करके लिखा है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                




           आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल चतुर्दशी वि.सं.२०७७, शुक्रवा

सदुपयोगसे कल्याण


सबसे पहले इस बातको जाननेकी आवश्यकता है कि विनाशी और अविनाशी‒ये दो चीजें हैं । इसको जानना मनुष्यका खास काम है । भगवान्‌ने गीताके आरम्भमें ही यह विषय चलाया । दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे लेकर तीसवें श्लोकतक भगवान्‌ने सत्‌-असत्‌, नित्य-अनित्य; देह-देही, शरीर-शरीरी‒इन दोनोंके भेदको बताया । इन दोनोंका भेद ठीक समझमें आ जाय तो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि सब-के-सब साधन सुगम हो जाते हैं । इनका भेद समझे बिना साधन कठिन हो जाता है । इनका भेद ठीक समझमें आ जाय तो हम परिवर्तनशीलसे ऊँचे उठ जायँगे, इसमें सन्देहकी बात नहीं है । कारण कि वास्तवमें हम परिवर्तनशीलसे ऊँचे हैं । हम जैसे हैं, वैसा अनुभव करनेमें क्या कठिनता है ? नित्य और अनित्य, सत्‌ और असत्‌, अविनाशी और विनाशी‒इनके भेदको ठीक तरहसे समझनेपर तत्त्वबोध हो जाता है और जन्म-मरणके चक्करसे छुटकारा हो जाता है । प्रकृतिके गुणोंका संग, आसक्ति, प्रियता, खिंचाव ही जन्म-मरणका खास कारण है‒‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) ।

बहुत-से भाई कहते हैं कि क्या करें, मन नहीं लगता और मन लगे बिना कुछ नहीं होता । भजनमें मन नहीं लगा तो भजन करनेसे क्या फायदा ? राम-राम कहते हो, पर मन लगे बिना कुछ नहीं‒ऐसा निर्णय दूसरे लोग भी दे देते हैं । झट दूसरोंको निर्णय दे देना, सम्मति दे देना बुद्धिकी अजीर्णता है । उनसे पूछो कि आपने ऐसा करके देखा है क्या ? इलाज करनके लिये अच्छे-अच्छे वैद्य हैं, पर आजकल हरेक आदमी इलाज करना चाहता है । इसको अमुक चीज दे दो, ठीक हो जायगा; अमुक चीज मत दो, उससे ठीक नहीं होगा‒ऐसी सम्मति चलते-चलते दे देते हैं । उनसे पूछो कि तुमने आयुर्वेद पढ़ा है ? ना । वैद्यकी करते हो ? ना । यह बुद्धिका अजीर्ण है ।

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजका जन्म बीत गया राम-रामके ऊपर । पहले उनका नाम ‘रामबोला’ था; क्योंकि जन्म लेते समय वे ‘राम’ बोले । ‘तुलसीदास’ नाम तो पीछे हुआ । वे कहते हैं‒

भायँ कुभायँ   अनख आलसहूँ ।

नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥

(मानस, बालकाण्ड २८/१)

भगवान्‌का नाम लेते ही दसों दिशाओंमें मंगल-ही-मंगल होता है । दुर्भावसे भी नाम लिया जाय तो वह भी कल्याण करता है । परन्तु लोग कहते हैं कि मन नहीं लगा तो कुछ नहीं ! भाई-बहन ध्यान देकर मेरी बातपर विचार करें । पहले मन लग जाय, फिर नाम लेंगे‒ऐसा कभी होनेवाला नहीं है । भगवान्‌का नाम लेते-लेते ही मन लगेगा । कम-से-कम आप नाम लेना शुरू तो कर दो । लोग खुद तो कुछ करते नहीं और ‘मन नहीं लगा तो कोई फायदा नहीं’‒ऐसा कहकर दूसरोंका भी साधन छुड़ा देते हैं ! आप भी नरकोंमें जाते हैं और दूसरोंको भी ले जाते हैं । सज्जनो ! खास खतरनाक चीज क्या है ? नाशवान्‌ वस्तुओंमें हमारा जो मोह है, प्रियता है, खिंचाव है, यह है खतरेकी चीज । नाशवान्‌की प्रियता ही आपको रुलाएगी‒‘प्रियस्त्वां रोदयति ।’

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                               




           आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल त्रयोदशी वि.सं.२०७७, गुरुवा

सदुपयोगसे कल्याण


एक बधिकने वनमें एक मृगको मारा और उसको उठाकर चला । रास्तेमें प्यास और थकावटसे व्याकुल होकर वह एक पेड़की छायामें आकर बैठ गया । उस वृक्षपर एक पालतू तोता बैठा हुआ था, जो पिंजड़ेसे निकलकर भाग आया था । इतनेमें एक साँप निकला और उसने बधिकको काट लिया । वहाँ उस तोतेने दो बार ‘राम-राम’ कहा, बधिकने भगवान्‌का नाम सुना तो उसके मुखसे भी दो बार ‘राम-राम’ निकला और वह मर गया । मरनेपर उसे ले जानेके लिये यमराजके दूत आये, पर उधरसे उसे वैकुण्ठमें ले जानेके लिये भगवान्‌के पार्षद भी आ गये । यमदूतोंने उनको रोका और कहा कि इसको कैसे ले जाते हो ? इसने तो बहुत जीवोंको मारा है, बहुत पाप किये हैं । इसलिये यह नरकोंमें जायगा । भगवान्‌के पार्षदोंने कहा कि इसने अन्तसमयमें भगवान्‌का नाम लिया है, इसलिये इसका कल्याण होगा । दोनोंमें विवाद छिड़ गया । फैसला करनेके लिये सम्पूर्ण पापोंको और नामको तौला गया तो नाम बड़ा वजनदार निकला । अतः बधिकको निर्भय धाम मिल गया‒

व्याध एक मारियो मिरग, व्याल डस्यो तरु छाँय ।

तृषा मरत शुक सुनि गिरा,   नाम प्रगट उर माँय ॥

उभय वार श्रवणां सुणे,   उभय  वार  मुख  गाय ।

अन्तकाल  ऐसो   भयो,    ततछिन  भए  सहाय ॥

जमकिंकर   बंधे  महा,      बंध     छुड़ाई   ताय ।

हरिपुरवासी  आय  के,     लेखै   न्याव   चुकाय ॥

एके   चेलै   अघ   सबै,         एके   चेलै   नाम ।

ऐसी  विधि  भव   तारणा,  निर्भय  दीधो  धाम ॥

(करुणासागर ६७‒७०)

भगवान्‌का नाम अपार, अनन्त शक्ति रखता है । उसके सामने पाप कितने हैं‒ऐसी गणना नहीं हो सकती । जैसे, सेरभर रूईको जलानेके लिये एक दियासलाई होनी चाहिये तो मनभर रूईको जलानेके लिये चालीस दियासलाई होनी चाहिये ? नहीं । एक ही दियासलाई सबको जला देगी । वहाँ यह माप-तौल नहीं होता कि जितनी रूई है, उसको जलानेके लिये अग्नि भी उतनी ही हो । इसी तरह पाप कितने हैं और भगवान्‌का नाम कितना है‒यह गिनती नहीं होती । मकानमें ठसाठस अँधेरा भरा हो तो एक दीपककी लौ करते ही सब (अँधेरा) भाग जाता है । संसार क्षणभंगुर है, नश्वर है, जा रहा है, नष्ट हो रहा है । परन्तु भगवान्‌, भगवान्‌का नाम, भगवान्‌की महिमा, भगवान्‌का प्रभाव नित्य-निरन्तर रहनेवाला है । उस रहनेवालेके सामने यह बहनेवाला कुछ ताकत नहीं रखता ।

शरीर, इन्द्रियाँ आदि नाशवान्‌ हैं, परिवर्तनशील है और स्वयं (जीवात्मा) अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है । इन दोनोंका ठीक तरहसे ज्ञान हो जाय अथवा नाशवान्‌का आश्रय लेना, उसको अपना मानना बहुत बड़ी गलती है । रुपयोंसे मेरा काम हो जायगा, कुटुम्बियोंसे काम हो जायगा, शरीरसे ऐसे हो जायगा; मेरेमें बड़ी भारी योग्यता है, मेरेमें बड़ी विद्या है, मेरेको बड़ा पद मिला हुआ है, मैं बड़ा अधिकारी हूँ‒ये सब बदलनेवाले और मिटनेवाले हैं । अगर इन सबका सहारा छोड़कर केवल भगवान्‌का सहारा ले लिया जाय तो निहाल हो जायँ !

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