Listen (३९) ‘न शोचति
न काङ्क्षति’ (१२ । १७; १८ । ५४)‒ये पद बारहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें
सिद्ध भक्तके लिये आये हैं अर्थात् जो भक्त भगवन्निष्ठ हो जाता हैं, उसको हर्ष-शोक
नहीं होते । अठारहवें अध्यायके चौवनवें श्लोकमें ये पद ब्रह्मभूत अवस्थाको प्राप्त
सांख्ययोगीके लिये आये हैं अर्थात् जो सांख्ययोगी अपने मार्गपर ठीक आरूढ़ हो जाता है,
जिसका विवेक जाग्रत् हो जाता है, उसको हर्ष-शोक नहीं होते । तात्पर्य है कि भक्त और
सांख्ययोगी‒दोनोंमें ही सांसारिक पदार्थोंकी महत्ता न होनेसे हर्ष-शौक, राग-द्वेष नहीं
होते । (४०) ‘ब्रह्मभूयाय
कल्पते’ (१४ ।
२६ ; १८ । ५३)‒इन पदोंसे भगवान्ने चौदहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें
बताया कि सर्वथा मेरी शरण हो जानेपर शरणागत भक्तको मेरी कृपासे ब्रह्मभूत-अवस्था स्वतः
प्राप्त हो जाती है, इसके लिये उसे कुछ करना नहीं पड़ता; और अठारहवें अध्यायके तिरपनवें
श्लोकमें बताया कि अहंता-ममतासे सर्वथा रहित होनेपर सांखायोगीको ब्रह्मभूत-अवस्था
प्राप्त हो जाती है अर्थात् ब्रह्मभूत-अवस्था प्राप्त करनेके लिये उसे साधन करना
पड़ता है । तात्पर्य है कि विश्वास और विवेक-विचारसे एक ही अवस्थाकी प्राप्ति होती
है । (४१) ‘सर्वभावेन
भारत’ (१५ ।
१९; १८ ।
६२)‒ये पद पंद्रहवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें सगुण-साकार भगवान्की शरणागतिके
विषयमें कहे गये हैं और अठारहवें अध्यायके बासठवें श्लोकमें सगुण-निराकार (अन्तर्यामी)
भगवान्की शरणागतिके विषयमें कहे गये हैं । तात्पर्य है कि रुचिभेदसे साध्यमें तो अन्तर
है, पर शरण्यभावमें कोई अन्तर नहीं है । शरणागति
चाहे सगुण-साकारकी हो,
चाहे सगुण-निराकारकी हो, पर दोनोंमें संसारका आश्रय किंचिन्मात्र
भी नहीं होना चाहिये । (४२) ‘प्रवृत्तिं
च निवृत्तिं च’ (१६ । ७; १८ । ३०)‒सोलहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें तो
आसुरी सम्पत्तिवालोंका वर्णन है, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते । अठारहवें अध्यायके
तीसवें श्लोकमें सात्त्विक बुद्धिवालोंका वर्णन है, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको ठीक-ठीक जानते
हैं । तात्पर्य है कि पहले (१६ । ७में) तो प्रवृत्ति-निवृत्तिको न जाननेकी बात आयी
है और फिर (१८ । ३०में) प्रवृत्ति-निवृत्तिको जाननेकी बात आयी है । (४३) ‘अहंकारं
बलं दर्पं कामं क्रोधम्’ (१६ । १८; १८ । ५३)‒सोलहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें
तो अहंकार आदिका आश्रय लेनेकी बात कही है; क्योंकि आसुर स्वभाववाले मनुष्योंके लिये
अहंकार आदि ही आश्रय होते हैं, इष्टदेव होते हैं । अठारहवें अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें अहंकार
आदिका त्याग करनेकी बात कही है; क्योंकि साधकोंके लिये अहंकार आदिका त्याग करना विशेष रहता है
। तात्पर्य है कि अहंकार आदिका आश्रय लेनेसे पतन होता है और त्याग करनेसे उत्थान होता
है; अतः सभीको अहंकार आदिका त्याग करना चाहिये
। (४४) ‘तत्तामसमुदाहृतम्’
(१७ । १९, २२; १८ ।
२२, ३९)‒सत्रहवें अध्यायके उन्नीसवें
और बाईसवें श्लोकमें यह पद श्रद्धाकी पहचानके प्रकरणमें तथा तप और दानके विषयमें आया
है अर्थात् दूसरोंको पीड़ा पहुँचानेके उदेश्यसे किया हुआ तप तामस है और तिरस्कारसे तथा
कुपात्रको दिया हुआ दान तामस है । अठारहवें अध्यायके बाईसवें और उनतालीसवें श्लोकमें
यह पद विवेक-विचारके प्रकरणमें तथा ज्ञान और सुखके विषयमें आया है अर्थात् शरीरको ‘मैं यही हूँ’ ऐसा मानना और उसमें आसक्त
होना तामस ज्ञान है[*] और निद्रा, आलस्य तथा प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला
सुख तामस है । तात्पर्य है कि साधकके लिये हानिकारक होनेसे तामस तप, दान, ज्ञान और सुख सर्वथा त्याज्य हैं । (४५) ‘यज्ञदानतपःकर्म
न त्याज्यम्’ (१८ । ३, ५)‒अठारहवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें अन्य
दार्शनिकोंका मत कहा गया है और पाँचवें श्लोकमें भगवान्का मत कहा गया है । तीसरे
श्लोकमें यज्ञ, दान और तपरूप कर्मका त्याग
न करनेकी बात कही गयी है और पाँचवें श्लोकमें यज्ञ, दान और तपरूप कर्मको विशेषतासे करनेकी
बात कही गयी है । तात्पर्य है कि शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तपरूप कर्मको साधनावस्थामें अपने
कल्याणके लिये और सिद्धावस्थामें लोकसंग्रहके लिये अवश्य करना चाहिये ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[*] तामस ज्ञानको वास्तवमें ‘ज्ञान’ कहा ही नहीं जा सकता । इसी कारण भगवान्ने
यहाँ (१८ । २२में) ज्ञान शब्द नहीं दिया है । |