Listen सूक्ष्म विषय‒कामकी दुष्पूरता आवृतं
ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण
कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥ अर्थ‒हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्निके समान
कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियोंके कामनारूप नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका विवेक
ढका हुआ है ।
व्याख्या‒‘एतेन’‒सैंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने पाप करवानेमें मुख्य कारण ‘काम’ अर्थात् कामनाको बताया था । उसी कामनाके लिये यहाँ
‘एतेन’
पद आया है । ‘दुष्पूरेणानलेन
च’‒जैसे अग्निमें घीकी सुहाती-सुहाती (अनुकूल) आहुति देते रहनेसे
अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, ऐसे ही कामनाके अनुकूल भोग भोगते रहनेसे कामना कभी तृप्त नहीं
होती,
प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है१
। जो भी वस्तु सामने आती रहती है,
कामना अग्निकी तरह उसे खाती रहती है । १.न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव
भूय एवाभिवर्धते ॥ (श्रीमद्भा॰ ९ । १९ । १४; मनुस्मृति २ । ९४) भोग और संग्रहकी कामना कभी पूरी होती ही नहीं । जितने ही भोग-पदार्थ
मिलते हैं, उतनी ही उनकी भूख बढ़ती है । कारण कि कामना जडकी ही होती है,
इसलिये जडके सम्बन्धसे वह कभी मिटती नहीं,
प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती है । सुन्दरदासजी लिखते हैं‒ जो दस बीस पचास भये सत, होइ हजार तो लाख मँगैगी । कोटि
अरब्ब खरब्ब असंख्य, पृथ्वीपति होन की चाह जगैगी ॥ स्वर्ग
पतालको राज करौ, तृष्ना अघकी अति आग लगैगी । ‘सुन्दर’ एक
संतोष बिना सठ, तेरी तो भूख कभी न भगैगी ॥ जैसे, सौ रुपये मिलनेपर हजार रुपयोंकी भूख पैदा होती है,
तो इससे सिद्ध हुआ कि नौ सौ रुपयोंका घाटा हुआ है । हजार रुपये
मिलनेपर फिर सीधे दस हजार रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है,
तो यह नौ हजार रुपयोंका घाटा हुआ है । दस हजार रुपये मिलनेपर
फिर सीधे एक लाख रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है, तो यह नब्बे हजार रुपयोंका घाटा हुआ है । लाख रुपये मिलनेपर
फिर दस लाख रुपयोंसे सन्तोष नहीं होता, प्रत्युत सीधे करोड़ रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है,
तो सिद्ध हुआ कि निन्यानबे लाख रुपयोंका घाटा हुआ है । इस प्रकार
वहम तो यह होता है कि लाभ बढ़ गया, पर वास्तवमें घाटा ही बढ़ा है । जितना धन मिलता है,
उतनी ही दरिद्रता (धनकी
भूख) बढ़ती है । वास्तवमें दरिद्रता उसकी मिटती है, जिसे धनकी भूख नहीं है । चाह
गयी चिन्ता मिटी, मनुआँ
बेपरवाह । जिनको कछू न चाहिये, सो साहनपति
साह ॥ वास्तवमें धन उतना बाधक नहीं है, जितनी
बाधक उसकी कामना है । धनकी कामना
चाहे धनीमें हो या निर्धनमें, दोनोंको वह परमात्मप्राप्तिसे वंचित रखती है । कामना किसीकी भी कभी पूरी नहीं होती; क्योंकि
यह पूरी होनेवाली चीज ही नहीं है । कामनासे रहित तो कामनाके मिटनेपर ही हो सकते हैं । ‘कामरूपेण’‒जडके सम्बन्धसे होनेवाले सुखकी चाहको
‘काम’
कहते हैं । नाशवान् संसारमें थोड़ी भी महत्त्व- बुद्धिका होना
‘काम’ है । अप्राप्तको प्राप्त करनेकी चाह ‘कामना’ है
। अन्तःकरणमें
जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं उनको ‘वासना’
कहते हैं । वस्तुओंकी आवश्यकता प्रतीत होना ‘स्पृहा’ है
। वस्तुमें उत्तमता और प्रियता दीखना ‘आसक्ति’
है । वस्तु मिलनेकी सम्भावना रखना ‘आशा’ है
। और अधिक वस्तु मिल जाय‒यह ‘लोभ’
या ‘तृष्णा’
है । वस्तुकी इच्छा अधिक बढ़नेपर ‘याचना’ होती
है । ये सभी ‘काम’
के ही रूप हैं । ‘ज्ञानिनो
नित्यवैरिणा’‒यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद साधनमें लगे हुए विवेकशील साधकोंके लिये आया है । कारण कि
विवेकशील साधक ही इस कामरूप वैरीको पहचानता है और उसका नाश करता है । साधन न करनेवाले
दूसरे लोग तो इसे पहचानते ही नहीं प्रत्युत इसे सुखदायी समझते हैं । भगवान् कहते हैं कि यह काम विवेकशील साधकोंका नित्य वैरी है
। कामना उत्पन्न होते ही विवेकशील साधकको विचार आता है कि
अब कोई-न-कोई आफत आयेगी ! कामनामें संसारका महत्त्व और आश्रय रहता है, जो
पारमार्थिक मार्गमें महान् बाधक है । विवेकी साधकको कामना आरम्भसे ही चुभती रहती है । परिणाममें तो कामना सबको दुःख
देती ही है । इसलिये यह साधककी नित्य (निरन्तर) वैरी है । भोगोंमें लगे हुए अज्ञानियोंको यह कामना मित्रके समान मालूम
देती है;
क्योंकि कामनाके कारण ही भोगोंमें सुख प्रतीत होता है । कामना
न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते । परन्तु परिणाममें उन्हें दुःख,
सन्ताप, कैद, नरक आदि प्राप्त होते ही हैं । इसलिये वास्तवमें यह कामना अज्ञानियोंकी
भी नित्य वैरी है । परन्तु अज्ञानियोंको जागृति नहीं रहती,
जब कि विवेकशील साधकोंको जागृति रहती है । ‘आवृतं
ज्ञानम्’‒विवेक प्राणिमात्रमें है । पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियोंमें
यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है । परन्तु मनुष्यमें
यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है; क्योंकि कामनाके कारण ही मनुष्यका विवेक ढका रहता है । विवेक
ढका रहनेसे मनुष्य अपने लक्ष्य परमात्मप्राप्तिकी ओर बढ़ नहीं सकता,
क्योंकि कामना उसे चिन्मय-तत्त्वकी ओर नहीं जाने देती,
प्रत्युत जड-तत्त्वमें ही लगाये रखती है । अपने प्रति कोई अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और
प्रिय एवं सत्य बोले तो अच्छा लगता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अच्छे-बुरे,
सद्गुण-दुर्गुण, कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका ज्ञान अर्थात् विवेक सभी मनुष्योंमें
रहता है । परन्तु ऐसा होनेपर भी वह अप्रिय और असत्य बोलता है,
अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता,
तो इसका कारण यही है कि कामनाने उसका विवेक ढक दिया है । कामनाके कारण ही ‘त्यागमें सुख है’‒यह ज्ञान काम नहीं करता । मनुष्यको
प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोग-पदार्थके मिलनेसे सुख होता है, पर
वास्तवमें सुख उसके त्यागसे होता है । यह सभीका अनुभव है कि जाग्रत् और स्वप्नमें भोग-पदार्थोंसे सम्बन्ध रहनेपर सुख
और दुःख दोनों होते हैं, पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-में भोग-पदार्थोंकी किंचित् भी
स्मृति न रहनेपर सुख ही होता है, दुःख नहीं । इसलिये गाढ़ निद्रासे जागनेपर वह कहता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया’ । इसके सिवाय जाग्रत् और स्वप्नसे थकावट आती है,
जब कि सुषुप्तिसे थकावट दूर होती है और ताजगी आती है । इससे
सिद्ध होता है कि भोग-पदार्थोंके त्यागमें ही सुख है । धनकी कामना होते ही धन मनके द्वारा पकड़ा जाता है । जब बाहरसे
धन प्राप्त हो जाता है, तब मनसे पकड़े हुए धनका त्याग हो जाता है और सुखकी प्रतीति होती
है । अतः वास्तवमें सुखकी प्रतीति बाहरसे धन मिलनेपर नहीं हुई,
प्रत्युत मनसे पकड़े हुए धनके त्यागसे ही हुई है । यदि धनके मिलनेसे
ही सुख होता तो उस धनके रहते हुए कभी दुःख नहीं आता; परन्तु उस धनके रहते हुए भी दुःख आ जाता है । जब मनुष्य किसी वस्तुकी कामना करता है, तब
वह पराधीन हो जाता है । जैसे,
उसके मनमें घड़ीकी कामना पैदा हुई । कामना पैदा होते ही उसको
घड़ीके अभावका दुःख होने लगता है तो यह घड़ीकी पराधीनता है । वह सोचता है कि यदि रुपये
मिल जायँ तो अभी घड़ी खरीद लूँ अर्थात् रुपयोंके होनेसे अपनेको स्वाधीन और न होनेसे
अपनेको पराधीन मानता है । यह मान्यता बिलकुल गलत है । वास्तवमें रुपये मिलनेपर घड़ीकी
पराधीनता तो नहीं रही, पर रुपयोंकी पराधीनता तो हो ही गयी;
क्योंकि रुपये भी ‘पर’ हैं, ‘स्व’ नहीं । जैसे वस्तुकी कामना होनेसे वह वस्तुके पराधीन हुआ,
ऐसे ही रुपयोंकी कामना होनेसे रुपयोंके पराधीन हुआ । पराधीनता
तो वैसी-की-वैसी ही रही ! परन्तु कामनासे विवेक ढका जानेके कारण मनुष्यको वस्तुकी पराधीनताका
तो अनुभव होता है, पर रुपयोंकी पराधीनताका अनुभव नहीं होता,
प्रत्युत रुपयोंके कारण वह स्वाधीनताका अनुभव करता है । जो पराधीनता स्वाधीनताके रूपमें दिखायी देती है, उस
पराधीनतासे छूटना बड़ा कठिन होता है । संसारमात्र क्षणभंगुर है । शरीर,
धन, जमीन, मकान आदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएँ हैं,
वे सब-की-सब प्रतिक्षण विनाशकी ओर जा रही हैं और हमारेसे वियुक्त
भी हो रही हैं । परन्तु भोग भोगते समय उनकी क्षणभंगुरताका ज्ञान नहीं रहता । पदार्थको नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता ।
साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, साधक भी भोगोंको नित्य और स्थिर माननेपर ही उनमें फँसता है ।
इसका कारण कामनाद्वारा विवेक ढका जाना ही है । विशेष बात मनुष्यको सदाके लिये महान् बनानेके उद्देश्यसे भगवान् कामनाको
‘नित्यवैरी’ बताकर उससे बचनेके लिये सावधान करते हैं;
क्योंकि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका कारण है । एक मनुष्य
अपनी स्त्रीको ढूँढ रहा था । लोगोंने पूछा‒तुम्हारी स्त्रीका नाम क्या है ?
उसने कहा‒फजीती । फिर पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है ?
उसने कहा‒बदमाश । लोगोंने कहा‒घबराओ मत,
बड़ी पतिव्रता स्त्री है, अपने-आप आ जायगी ! कारण कि बदमाशको फजीती (बदनामी) अवश्य मिलती
है । इसी प्रकार संसारके नाशवान् भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्यके पास दुःख अपने-आप
आते हैं । मनुष्य दुःखोंसे तो बचना चाहता है, पर
दुःखोंके कारण ‘काम’ (कामना)-को नहीं छोड़ता । कामनाके रहते हुए स्वप्नमें
भी सुख नहीं मिलता‒‘काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं’ (मानस
७ । ९० । १) । भगवान्
‘अनलेन, दुष्पूरेण’
पदोंसे यह बताते हैं कि भोग-पदार्थोंसे कामना कभी पूरी नहीं
होती । ज्यों-ज्यों भोग-पदार्थ मिलते हैं, त्यों-हीं-त्यों उनकी कामना बढ़ती है और ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती
है,
त्यों-ही-त्यों अभावका अधिक अनुभव होता है एवं अभावको मिटानेके
लिये मनुष्य पाप-कर्मोंमें प्रवृत्त होता है । जैसे धनकी कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य
धनकी प्राप्तिमें न्याय-अन्यायका विचार नहीं करता । फिर कामना बढ़नेपर (द्वितीयावस्थामें)
वह चोरी,
डाके आदिमें भी लग जाता है । फिर और अधिक कामना बढ़नेपर (तृतीयावस्थामें)
वह धनके लिये दूसरोंको जानसे भी मार डालता है । इस प्रकार नाशवान् सुखकी कामना करनेवाला
मनुष्य अपने लोक और परलोक‒दोनोंको महान् दुःखरूप बना लेता है । परिशिष्ट भाव‒साधनकी मुख्य बाधा है‒संयोगजन्य सुखकी
कामना । यह बाधा साधनमें बहुत दूरतक रहती है । साधक जहाँ सुख लेता है,
वहीं अटक जाता है । यहाँतक कि वह समाधिका भी सुख लेता है तो
वहाँ अटक जाता है२ । सात्त्विक सुखकी कामना, आसक्ति भी बन्धनकारक हो जाती है‒‘सुखसंगेन
बध्नाति’ (गीता १४ । ६)३ इसलिये यहाँ भगवान्ने संयोगजन्य सुखकी कामनाको विवेकी साधकोंका
नित्य वैरी बताया है‒‘न तेषु रमते बुधः’
(गीता ५ । २२) ‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’
(योगदर्शन
२ । १५) । २.भोगोंका सुख संयोगजन्य
और समाधिका सुख वियोगजन्य है । संयोगजन्य सुख लेनेसे पतन हो जाता है और वियोगजन्य सुख
लेनेसे साधक अटक जाता है ।
३.परमात्मप्राप्तिके मार्गमें
सात्त्विक सुखकी आसक्ति अटकाती है और राजस-तामस सुखकी आसक्ति पतन करती है । രരരരരരരരരര |