Listen सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें अपने अवतारके अवसरका वर्णन करके अब भगवान् अपने
अवतारका प्रयोजन बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒भगवान्के अवतारका प्रयोजन । परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे
युगे ॥ ८ ॥ अर्थ‒साधुओं (भक्तों)-की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति
स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ ।
व्याख्या‒‘परित्राणाय साधूनाम्’‒साधु मनुष्योंके द्वारा ही अधर्मका
नाश और धर्मका प्रचार होता है, इसलिये उनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं
। दूसरोंका हित करना ही जिनका स्वभाव
है और जो भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण, कीर्तन आदि करते हैं और लोगोंमें भी
इसका प्रचार करते हैं, ऐसे भगवान्के आश्रित भक्तोंके लिये यहाँ ‘साधूनाम्’ पद आया है । जिसका एकमात्र परमात्म-प्राप्तिका
उद्देश्य है, वह साधु है१ और जिसका नाशवान् संसारका उद्देश्य है, वह असाधु है । १ .‘साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो
हि सः । (गीता ९ । ३०) असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव
करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती हैं । ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती
हैं,
त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों
कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है । साधुतासे अपना उद्धार और लोगोंका
स्वतः उपकार होता है । साधु पुरुषके भावों और क्रियाओंमें
पशु,
पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है‒ हेतु रहित जग जुग उपकारी
। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी
। (मानस ७ । ४७ । ३) यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ
तो वे उसके चरणोंके दास बन जायँ । इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुषके मनके भावोंको
जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो । यहाँ शंका हो सकती है कि यदि भगवान्
साधु पुरुषोंकी रक्षा किया करते हैं तो फिर संसारमें साधु पुरुष दुःख पाते हुए क्यों
देखे जाते हैं ? इसका
समाधान यह है कि साधु पुरुषोंकी रक्षाका तात्पर्य उनके भावोंकी
रक्षा है; शरीर, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई आदिकी रक्षा नहीं; कारण कि वे इन सांसारिक पदार्थोंको
महत्त्व नहीं देते । भगवान् भी इन वस्तुओंको महत्त्व नहीं देते; क्योंकि सांसारिक
पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही असाधुता पैदा होती है । भक्तोंमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व, उद्देश्य होता ही नहीं; तभी तो वे भक्त हैं । भक्तलोग प्रतिकूलता
(दुःखदायी परिस्थिति)-में विशेष प्रसन्न होते हैं; क्योंकि प्रतिकूलतासे
जितना आध्यात्मिक लाभ होता है, उतना किसी दूसरे साधनसे
नहीं होता । वास्तवमें भक्ति भी प्रतिकूलतामें ही बढ़ती है । सांसारिक राग, आसक्तिसे ही पतन होता है
और प्रतिकूलतासे वह राग टूटता है । इसलिये भगवान्का भक्तोंके लिये प्रतिकूलता भेजना
भी वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा करना है । ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’‒दुष्ट मनुष्य अधर्मका प्रचार और धर्मका
नाश करते हैं, इसलिये
उनका विनाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं । जो मनुष्य कामनाके अत्यधिक बढ़नेके
कारण झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे
हुए हैं, जो
निरपराध सद्गुण, सदाचारी, साधुओंपर अत्याचार किया करते हैं, जो दूसरोंका अहित करनेमें ही लगे रहते
हैं,
जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, भगवान् और वेद-शास्त्रोंका विरोध करना
ही जिनका स्वभाव हो गया है, ऐसे आसुरी सम्पत्तिमें अधिक रचे-पचे रहकर वैसा ही बुरा
आचरण करनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ ‘दुष्कृताम्’ पद
आया है । भगवान् अवतार लेकर ऐसे ही दुष्ट मनुष्योंका विनाश करते हैं । शंका‒भगवान् तो सब प्राणियोंमें
सम हैं और उनका कोई वैरी नहीं है (‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः’
गीता ९ । २९), फिर वे दुष्टोंका विनाश क्यों करते
हैं ? समाधान‒सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे
भगवान्का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान्का वैरी होता है‒ सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ । निज अपराध रिसाहिं न काऊ
॥ जो अपराधु
भगत कर करई । राम रोष पावक
सो जरई ॥ (मानस २ । २१८ । २-३) भगवान्का एक नाम ‘भक्तभक्तिमान्’ (श्रीमद्भा॰ १० । ८६ । ५९) है । अतः भक्तोंको कष्ट देनेवाले
दुष्टोंका विनाश भगवान् स्वयं करते हैं । पापका विनाश भक्त करते हैं और पापीका विनाश
भगवान् करते हैं । साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान्की
जितनी कृपा है, उतनी
ही कृपा दुष्टोंका विनाश करनेमें भी है२ ! विनाश करके भगवान् उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं । २.१‒‘अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा’ (मानस २ । १८३ । ३) २‒ये ये हताश्चक्रधरेण
राजंस्त्रैलोक्यनाथेन जनार्दनेन । ते ते गता विष्णुपुरीं प्रयाताः क्रोधोऽपि देवस्य
वरेण तुल्यः ॥ (पाण्डवगीता) ‘हे राजन् ! त्रैलोक्याधिपति
चक्रधारी भगवान् जनार्दनके द्वारा जो लोग मारे गये, वे सभी विष्णुलोकको चले
गये । इस देवका क्रोध भी वरकी तरह ही कल्याणप्रद है ।’ सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते
हैं,
पर दुष्टोंके विनाशका कार्य वे नहीं
करते । दुष्टोंका विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं; जैसे‒साधारण मलहम-पट्टी करनेका काम
तो कंपाउंडर करता है, पर बड़ा ऑपरेशन करनेका काम सिविल सर्जन खुद करता है, दूसरा नहीं ।
माता और पिता‒दोनों समानरूपसे बालकका
हित चाहते हैं । बालक पढ़ाई नहीं करता, उद्दण्डता करता है तो उसको माता भी समझाती है और पिता
भी समझाते हैं । बालक अपनी उद्दण्डता न छोड़े तो पिता उसे मारते-पीटते हैं । परन्तु
बालक जब घबरा जाता है, तब माता पिताको मारने-पीटनेसे रोकती है । यद्यपि माता
पतिव्रता है, पतिका
अनुसरण करना उसका धर्म है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि पति बालकको मारे तो वह भी
साथमें मारने लग जाय । यदि वह ऐसा करे तो बालक बेचारा कहाँ जायगा ? बालककी रक्षा करनेमें उसका पातिव्रत-धर्म
नष्ट नहीं होता । कारण कि वास्तवमें पिता भी बालकको मारना-पीटना नहीं चाहते, प्रत्युत उसके दुर्गुण-दुराचारोंको
दूर करना चाहते हैं । इसी तरह भगवान् पिताके समान हैं और
उनके भक्त माताके समान । भगवान् और सन्त-महात्मा मनुष्योंको समझाते हैं । फिर
भी मनुष्य अपनी दुष्टता न छोड़े तो उनका विनाश करनेके लिये भगवान्को अवतार लेकर खुद
आना पड़ता है । अगर वे अपनी दुष्टता छोड़ दें तो उन्हें मारनेकी आवश्यकता ही न रहे । രരരരരരരരരര |