।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें अपने अवतारके अवसरका वर्णन करके अब भगवान्‌ अपने अवतारका प्रयोजन बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के अवतारका प्रयोजन ।

      परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय   सम्भवामि   युगे   युगे ॥ ८ ॥

अर्थ‒साधुओं (भक्तों)-की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ ।

साधुनाम् = साधुओं (भक्तों)-की

च = और

परित्राणाय = रक्षा करनेके लिये,

धर्मसंस्थापनार्थाय = धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये (मैं)

दुष्कृताम् = पापकर्म करनेवालोंका

युगे, युगे = युग-युगमें

विनाशाय = विनाश करनेके लिये

सम्भवामि = प्रकट हुआ करता हूँ ।

व्याख्या‒‘परित्राणाय साधूनाम्’साधु मनुष्योंके द्वारा ही अधर्मका नाश और धर्मका प्रचार होता है, इसलिये उनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं ।

दूसरोंका हित करना ही जिनका स्वभाव है और जो भगवान्‌के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण, कीर्तन आदि करते हैं और लोगोंमें भी इसका प्रचार करते हैं, ऐसे भगवान्‌के आश्रित भक्तोंके लिये यहाँ ‘साधूनाम्’ पद आया है ।

जिसका एकमात्र परमात्म-प्राप्‍तिका उद्‍देश्य है, वह साधु है और जिसका नाशवान् संसारका उद्‍देश्य है, वह असाधु है ।

.साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।

(गीता ९ । ३०)

असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती हैं । ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्‍ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्‍त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है । साधुतासे अपना उद्धार और लोगोंका स्वतः उपकार होता है ।

साधु पुरुषके भावों और क्रियाओंमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है‒

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।

तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।

(मानस ७ । ४७ । ३)

यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ तो वे उसके चरणोंके दास बन जायँ । इसके विपरीत यदि लोग दुष्‍ट पुरुषके मनके भावोंको जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो ।

यहाँ शंका हो सकती है कि यदि भगवान् साधु पुरुषोंकी रक्षा किया करते हैं तो फिर संसारमें साधु पुरुष दुःख पाते हुए क्यों देखे जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि साधु पुरुषोंकी रक्षाका तात्पर्य उनके भावोंकी रक्षा है; शरीर, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई आदिकी रक्षा नहीं; कारण कि वे इन सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व नहीं देते । भगवान् भी इन वस्तुओंको महत्त्व नहीं देते; क्योंकि सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही असाधुता पैदा होती है ।

भक्तोंमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व, उद्‍देश्य होता ही नहीं; तभी तो वे भक्त हैं । भक्तलोग प्रतिकूलता (दुःखदायी परिस्थिति)-में विशेष प्रसन्‍न होते हैं; क्योंकि प्रतिकूलतासे जितना आध्यात्मिक लाभ होता है, उतना किसी दूसरे साधनसे नहीं होता । वास्तवमें भक्ति भी प्रतिकूलतामें ही बढ़ती है । सांसारिक राग, आसक्तिसे ही पतन होता है और प्रतिकूलतासे वह राग टूटता है । इसलिये भगवान्‌का भक्तोंके लिये प्रतिकूलता भेजना भी वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा करना है ।

विनाशाय च दुष्कृताम्’दुष्‍ट मनुष्य अधर्मका प्रचार और धर्मका नाश करते हैं, इसलिये उनका विनाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं ।

जो मनुष्य कामनाके अत्यधिक बढ़नेके कारण झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे हुए हैं, जो निरपराध सद्गुण, सदाचारी, साधुओंपर अत्याचार किया करते हैं, जो दूसरोंका अहित करनेमें ही लगे रहते हैं, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, भगवान् और वेद-शास्‍त्रोंका विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है, ऐसे आसुरी सम्पत्तिमें अधिक रचे-पचे रहकर वैसा ही बुरा आचरण करनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ ‘दुष्कृताम्’ पद आया है । भगवान् अवतार लेकर ऐसे ही दुष्‍ट मनुष्योंका विनाश करते हैं ।

शंका‒भगवान् तो सब प्राणियोंमें सम हैं और उनका कोई वैरी नहीं है (समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः’ गीता ९ । २९), फिर वे दुष्‍टोंका विनाश क्यों करते हैं ?

समाधान‒सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे भगवान्‌का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान्‌का वैरी होता है‒

सुनु   सुरेस   रघुनाथ  सुभाऊ ।

निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥

जो   अपराधु   भगत कर करई ।

राम    रोष  पावक  सो  जरई ॥

(मानस २ । २१८ । २-३)

भगवान्‌का एक नाम ‘भक्तभक्तिमान्’ (श्रीमद्भा १० । ८६ । ५९) है । अतः भक्तोंको कष्‍ट देनेवाले दुष्‍टोंका विनाश भगवान् स्वयं करते हैं । पापका विनाश भक्त करते हैं और पापीका विनाश भगवान् करते हैं ।

साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान्‌की जितनी कृपा है, उतनी ही कृपा दुष्‍टोंका विनाश करनेमें भी है ! विनाश करके भगवान् उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं ।

२.१‒‘अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा’ (मानस २ । १८३ । ३)

२‒ये    ये   हताश्‍चक्रधरेण  राजंस्‍त्रैलोक्यनाथेन    जनार्दनेन ।

    ते ते गता विष्णुपुरीं प्रयाताः क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः ॥

(पाण्डवगीता)

‘हे राजन् ! त्रैलोक्याधिपति चक्रधारी भगवान् जनार्दनके द्वारा जो लोग मारे गये, वे सभी विष्णुलोकको चले गये । इस देवका क्रोध भी वरकी तरह ही कल्याणप्रद है ।’

सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते हैं, पर दुष्‍टोंके विनाशका कार्य वे नहीं करते । दुष्‍टोंका विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं; जैसे‒साधारण मलहम-पट्टी करनेका काम तो कंपाउंडर करता है, पर बड़ा ऑपरेशन करनेका काम सिविल सर्जन खुद करता है, दूसरा नहीं ।

माता और पिता‒दोनों समानरूपसे बालकका हित चाहते हैं । बालक पढ़ाई नहीं करता, उद्दण्डता करता है तो उसको माता भी समझाती है और पिता भी समझाते हैं । बालक अपनी उद्दण्डता न छोड़े तो पिता उसे मारते-पीटते हैं । परन्तु बालक जब घबरा जाता है, तब माता पिताको मारने-पीटनेसे रोकती है । यद्यपि माता पतिव्रता है, पतिका अनुसरण करना उसका धर्म है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि पति बालकको मारे तो वह भी साथमें मारने लग जाय । यदि वह ऐसा करे तो बालक बेचारा कहाँ जायगा ? बालककी रक्षा करनेमें उसका पातिव्रत-धर्म नष्‍ट नहीं होता । कारण कि वास्तवमें पिता भी बालकको मारना-पीटना नहीं चाहते, प्रत्युत उसके दुर्गुण-दुराचारोंको दूर करना चाहते हैं । इसी तरह भगवान् पिताके समान हैं और उनके भक्त माताके समान । भगवान् और सन्त-महात्मा मनुष्योंको समझाते हैं । फिर भी मनुष्य अपनी दुष्‍टता न छोड़े तो उनका विनाश करनेके लिये भगवान्‌को अवतार लेकर खुद आना पड़ता है । अगर वे अपनी दुष्‍टता छोड़ दें तो उन्हें मारनेकी आवश्यकता ही न रहे ।

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