Listen निर्गुण ब्रह्म प्रकृति, माया, अज्ञान आदिका विरोधी नहीं है, प्रत्युत उनको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला
तथा उनका पोषक है । तात्पर्य यह कि प्रकृति, माया आदिमें जो कुछ सामर्थ्य है, वह सब उस निर्गुण ब्रह्मकी ही है ।
इसी तरह सगुण भगवान् भी किसी जीवके साथ द्वेष, वैर या विरोध नहीं रखते, प्रत्युत समान रीतिसे सबको सामर्थ्य
देते हैं, उनका
पोषण करते हैं । इतना ही नहीं, भगवान्की रची हुई पृथ्वी भी रहनेके लिये सबको बराबर स्थान
देती है । उसका यह पक्षपात नहीं है कि महात्माको तो विशेष स्थान दे, पर दुष्टको स्थान न दे । ऐसे ही अन्न
सबकी भूख बराबर मिटाता है, जल सबकी प्यास समानरूपसे मिटाता है, वायु सबको प्राणवायु एक-सी देती है, सूर्य सबको प्रकाश एक-सा देता है, आदि । यदि पृथ्वी, अन्न, जल आदि दुष्टोंको स्थान, अन्न, जल आदि देना बंद कर दें तो दुष्ट जी
ही नहीं सकते । इस प्रकार जब भगवान्के विधानके अनुसार चलनेवाले पृथ्वी, अन्न, जल, वायु, सूर्य आदिमें भी इतनी उदारता, समता है, तब इस विधानके
विधायक (भगवान्)-में कितनी विलक्षण उदारता, समता होगी ! वे तो उदारताके
भण्डार ही हैं । यदि विधायक (भगवान्) और उनके विधानकी ओर थोड़ा-सा भी दृष्टिपात किया
जाय तो मनुष्य गद्गद हो जाय और भगवान्के चरणोंमें उसका प्रेम हो जाय ! भगवान्का दुष्ट पुरुषोंसे विरोध नहीं
है,
प्रत्युत उनके दुष्कर्मोंसे विरोध है
। कारण कि वे दुष्कर्म संसारका तथा उन दुष्टोंका भी अहित करनेवाले हैं । भगवान् सर्वसुहृद् हैं; अतः वे संसारका तथा उन दुष्टोंका
भी हित करनेके लिये ही दुष्टोंका विनाश करते हैं । उनके द्वारा जो दुष्ट मारे जाते
हैं, उनको भगवान् अपने ही धाममें भेज देते हैं‒यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता है ! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अगर हम पाप-कर्म ही करते रहें तो क्या
हमें भी मारनेके लिये भगवान्को आना पड़ेगा ? अगर ऐसी बात है तो भगवान्के द्वारा
मरनेसे हमारा कल्याण हो ही जायगा; फिर जिनमें संयम करना पड़ता है, ऐसे श्रमसाध्य सद्गुण-सदाचारका पालन
क्यों करें ? इसका
उत्तर यह है कि वास्तवमें भगवान् उन्हीं पापियोंको मारनेके लिये आते हैं, जो भगवान्के सिवाय दूसरे किसीसे मर
ही नहीं सकते । दूसरी बात, शुभ-कर्मोंमें जितना लगेंगे, उतना तो पुण्य हो ही जायगा, पर अशुभ-कर्मोंमें लगे रहनेसे यदि बीचमें
ही मर जायँगे अथवा कोई दूसरा मार देगा तो मुश्किल हो जायगी ! भगवान्के हाथों मरकर
मुक्ति पानेकी लालसा कैसे पूरी होगी ! इसलिये अशुभ-कर्म करने ही नहीं चाहिये । ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’‒निष्कामभावका उपदेश, आदेश और प्रचार ही धर्मकी
स्थापना है । कारण कि निष्कामभावकी कमीसे और असत् वस्तुको सत्ता देकर उसे महत्त्व देनेसे ही
अधर्म बढ़ता है, जिससे मनुष्य दुष्ट स्वभाववाले हो जाते हैं । इसलिये भगवान् अवतार लेकर आचरणके द्वारा निष्कामभावका प्रचार करते हैं
। निष्कामभावके प्रचारसे धर्मकी स्थापना स्वतः हो जाती है । धर्मका आश्रय भगवान् हैं१ (गीता‒चौदहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक), इसलिये शाश्वत धर्मकी संस्थापना करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं । १ .(१) ‘श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह’ (मानस २ । १२६) (२) ‘धर्मस्य प्रभुरच्युतः’ (महाभारत, अनु॰ १४९ । १३७) संस्थापना करनेका अर्थ है‒सम्यक् स्थापना करना । तात्पर्य है
कि धर्मका कभी नाश नहीं होता, केवल ह्रास होता है । धर्मका ह्रास होनेपर भगवान् पुनः उसकी
अच्छी तरह स्थापना करते हैं (गीता‒चौथे अध्यायके पहलेसे तीसरे श्लोकतक) । ‘सम्भवामि युगे युगे’‒आवश्यकता पड़नेपर भगवान् प्रत्येक युगमें
अवतार लेते हैं । एक युगमें भी जितनी बार जरूरत पड़ती है, उतनी बार भगवान् अवतार लेते हैं ।
‘कारक पुरुष’२ और सन्त-महात्माओंके रूपमें भी भगवान्का
अवतार हुआ करता है । २.जो महापुरुष भगवान्को प्राप्त हो चुके हैं और भगवद्धाममें विराजते हैं, वे ‘कारक पुरुष’ कहलाते हैं । भगवान् और कारक पुरुषका अवतार तो ‘नैमित्तिक’ है, पर सन्त-महात्माओंका अवतार ‘नित्य’
माना गया है । यहाँ शंका होती है कि भगवान् तो सर्वसमर्थ
हैं,
फिर संतोंकी रक्षा करना, दुष्टोंका विनाश करना और धर्मकी स्थापना
करना‒ये काम क्या वे अवतार लिये बिना नहीं कर सकते ? इसका समाधान यह है कि भगवान् अवतार
लिये बिना ये काम नहीं कर सकते, ऐसी बात नहीं है । यद्यपि भगवान् अवतार लिये बिना अनायास
ही यह सब कुछ कर सकते हैं और करते भी रहते हैं, तथापि जीवोंपर विशेष कृपा करके उनका
कुछ और हित करनेके लिये भगवान् स्वयं अवतीर्ण होते हैं३ । ३.अनुग्रहाय भूतानां
मानुषं देहमास्थितः
। भजते तादृशीः
क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥ (श्रीमद्भा १० । ३३ । ३७) ‘भगवान् जीवोंपर विशेष
कृपा करनेके लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण
हो जायँ ।’ अवतारकालमें भगवान्के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप आदिसे, भविष्यमें उनकी दिव्य लीलाओंके
श्रवण, चिन्तन और ध्यानसे तथा उनके उपदेशोंके
अनुसार आचरण करनेसे लोगोंका सहज ही उद्धार हो जाता है । इस प्रकार लोगोंका सदा उद्धार
होता ही रहे, ऐसी एक रीति भगवान् अवतार लेकर ही चलाते
हैं । भगवान्के कई ऐसे प्रेमी
भक्त होते हैं, जो भगवान्के साथ खेलना चाहते हैं, उनके साथ रहना चाहते हैं
। उनकी इच्छा पूरी करनेके लिये भी भगवान् अवतार लेते हैं और उनके सामने आकर, उनके समान बनकर खेलते हैं
। जिस युगमें जितना कार्य आवश्यक होता
है,
भगवान् उसीके अनुसार अवतार लेकर उस
कार्यको पूरा करते हैं । इसलिये भगवान्के अवतारोंमें तो भेद होता है, पर स्वयं भगवान्में कोई भेद नहीं होता
। भगवान् सभी अवतारोंमें पूर्ण हैं और पूर्ण ही रहते हैं
। भगवान्के लिये न तो कोई कर्तव्य है
और न उन्हें कुछ पाना ही शेष है (गीता‒तीसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), फिर भी वे समय-समयपर अवतार लेकर केवल
संसारका हित करनेके लिये सब कर्म करते हैं । इसलिये मनुष्यको
भी केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्तव्य-कर्म करने चाहिये । चौथे श्लोकमें आये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने मनुष्योंके जन्म और अपने जन्म (अवतार)-में
तीन बड़े अन्तर बताये हैं‒ (१) जाननेमें अन्तर‒मनुष्योंके और भगवान्के
बहुत-से जन्म हो चुके हैं । उन सब जन्मोंको मनुष्य तो नहीं जानते, पर भगवान् जानते हैं (४ । ५) । (२) जन्ममें अन्तर‒मनुष्य प्रकृतिके
परवश होकर, अपने
किये हुए पाप-पुण्योंका फल भोगनेके लिये और फलभोगपूर्वक परमात्माकी प्राप्ति करनेके
लिये जन्म लेता है, पर भगवान् अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वाधीनतापूर्वक अपनी योगमायासे
स्वयं प्रकट होते हैं (चौथे अध्यायका छठा श्लोक) । (३) कार्यमें अन्तर‒साधारणतः मनुष्य अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये कार्य करते हैं, जो कि मनुष्यजन्मका ध्येय
नहीं है, पर
भगवान् केवल मात्र जीवोंके कल्याणके लिये कार्य करते हैं (चौथे अध्यायका सातवाँ-आठवाँ
श्लोक) । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒परमात्मा अक्रिय हैं; अतः अवतार लेकर क्रिया (लीला) करनेके लिये वे अपनी प्रकृतिकी
सहायता लेते हैं । अवतारमें सम्पूर्ण क्रियाएँ परमात्माके द्वारा की जाती हुई दीखनेपर
भी वास्तवमें वे क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हैं । इसलिये सीताजीने कहा है
कि सम्पूर्ण क्रियाएँ मैंने ही की हैं, भगवान् रामने नहीं‒ एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि । आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि
॥ (अध्यात्म॰ बाल॰ १ । ४२) ‘(भगवान् श्रीरामके अवतार लेनेसे लेकर
राज्य-पदपर अभिषिक्त होनेतकके) सम्पूर्ण कार्य यद्यपि मेरे ही किये हुए हैं, तो भी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्वात्मा
भगवान्में आरोपित करते हैं ।’
आगे इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें
भी भगवान् कहेंगे‒‘तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्’ । രരരരരരരരരര |