।। श्रीहरिः ।।

प्रेमके प्यासे प्रभु


है तो परमात्मा ही लेकिन हमारेको संसार दीखता है । परमात्माकी जगह संसार दिखता है । परमात्मा है —ऐसा मानना आस्तिकता है और परमात्माकी जगह संसार मानना नास्तिकता है । वो मेरा है, मैं उसका हूँ । मेरा है, मेरा है ... कहते-कहते 'मैं उसीका हूँ' हो जाय । जैसे गंगाजीमें जाते-जाते डूब जाय !! ऐसे ही परमात्माकी शरण जाते-जाते डूब जाय, परमात्मा ही रह जाय । यह भगवान् की शरणागति है । अपने-आपकी सत्ता ही उठा दी जाय, तब शरणागति हो जाती है । फिर भगवान् की कृपामें मस्त हो जाय, लबालब भगवान् की कृपामें !! 'ये यथा माम् प्रपद्यन्ते, तांस तथैव भजाम्यहम्' । हमें भगवानकी शरणकी पूरी तैयारी कर लेनी है फिर परमात्मा शरणागतको कृपा करके स्वीकार कर लेते है । ऐसा सुना है, वह जो शरण लेते है न ! उसमें विलक्षण आनंद है । अपनेमें लीन कर देते है विलक्षण ढंग से । भगवान् प्रेम करते है तो अपनेमें लीन कर देते है फिर अलग करते है । वह प्रेम असली होता है । असली प्रेमका तब पता लगता है ।
देखो ! पहले परमात्मासे हम अलग मानते है अपनेको ! अलग मानकर भगवान् के शरण हो जाते है । शरण होकर लीन हो जाते है फिर भगवान् अपनेको एक से दो करके प्रेम करते है, वह असली प्रेम होता है । 'भर्क्त्यथ्मं स्वीकृतम् द्वैतं' । अपनी तरफसे दूर होना बंधन करनेवाला है और भगवान् की तरफसे जो अलग होते है वह 'अद्वैतादी सुन्दरम्' अद्वैतसे भी सुंदर है । प्रभुसे एक होकर, जब प्रभु अलग करते है वह !! भगवान् अपनेको स्वीकार कर लेते है फिर अपने तो एक भगवान् ही है । अपनी कोई इच्छा, चाहना किंचितमात्र भी नहीं होती है । कोई चेष्टा, धारणा नहीं । उस प्रेममें भगवान् परवश हो जाते है । उस प्रेमके भोक्ता भगवान् होते है, फिर भगवान् को आनंद होता है । आनंद स्वरुप भगवान् को आनंद देता है । अपने तो कुछ लेना, चाहना ही नहीं है । इस वास्ते असली प्रेमके भोक्ता भगवान् ही होते है, जीव भोक्ता नहीं होता है । वह तो देनेवाला होता है और भगवान् लेनेवाले होते है । प्रेमका तो अंत होता नहीं और भगवान् का पेट भरता नहीं ! उनको तृप्ति होती ही नहीं ! इसका नाम भक्तिरस, प्रेमरस, प्रेमका आस्वादन है । 'भगत मेरे मुकुटमणि, मैं भगतनको दास' ! उस रसरूप, रस-सागरको रस देनेवाला होता है भक्त ! भगवान् को जितना प्यारा भक्त होता है , उतना प्यारा और कोई नहीं है !! ऐसे अपने आपको देनेवाले प्रभुके चरणोंकी शरण हो जाय, हे नाथ ! हे नाथ !! अपने आपको समर्पित कर दें ! सर्वथा भगवान् को समर्पित कर दें ! भगवान् आनंदमग्न, मस्त हो जाते है ।
हमने पुस्तकमें पढ़ा है कि सिवाय मनुष्यके भगवान् को ऐसा प्रेम देनेवाला कोई नहीं है । एक मनुष्ययोनी ही ऐसी है; देवता, राक्षस, पिशाच, जलचर, थलचर कोई भी भगवान् को ऐसा प्रेम दे नहीं सकता ! क्योंकि मनुष्यमें विवेकशक्ति है । संसारके सुखका भोगी दुःखसे बच सकता ही नहीं । भयंकर दुःख भोगना पड़ता है, इस वास्ते संसारके सुखका त्याग कर देता है, लेश मात्र भी इच्छा नहीं रखता फिर भगवान् का प्रेम प्राप्त होता है । यह विवेकशक्ति भगवान् की दी हुई है, उसको काम लेता है । दीर्घद्रष्टिवाले संत-महात्मा परिणामकी तरफ देखकर हरेक काम करते है । इसलिए संसारका सुख 'दुखालायम् अशाष्वतम्' का त्याग कर देते है । उनकी वृत्ति वहाँसे स्वतः स्वाभाविक हट जाती है और भगवान् को सुख, आनंद देता है । फिर अनंत, अपार सुख, भगवान् का प्रेम, स्नेह मिलता है । उस आनंदमें महात्मा लोग मस्त रहते है । भोजन बढ़िया हो तो, या तो पेट भर जाता है या भोजन कम पड जाता है, अतः वह रस आता नहीं । और इस प्रेम रसमें, रस तो समाप्त होता नहीं और पेट तो भरता नहीं, तृप्ति होती नहीं ! ऐसे अनंत प्रेममें मस्त होते है, मौज में मग्न हो जाते है एकदम ! आनद ही आनंद ! अपार आनंद ! असीम आनंद !
इसके पहले वैराग्यकी मस्ती होती है, वह भी बड़ी विचित्र होती है । वैराग्य होकरके फिर अनुराग होता है, भगवान् में प्रेम होता है । पहले त्यागमें आनंद होता है फिर प्रभु-प्रेम मिलता है, उसका आनंद होता है । यह अलौकिक, विलक्षण है 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सहः' । रसमें डूब जाता है, अपनी सत्ता ही नहीं दिखती । प्रेममें मतवाले हो जाते है । ऐसे प्रेमीका दर्शन भी बडभागीको होता है, उनको समजना चाहिए कि भगवान् की असीम, अपार कृपा हो गई कि ऐसे भक्तके दर्शन हो गए !! उसके सामने संसारका कोई सुख टिकता ही नहीं, कोई मस्ती है नहीं सांसारिक सुखकी ! भगवान् की मस्तीमें आनंद विभोर हो जाते है, आगे उनकी वाणी भी लुप्त हो जाती है, कुछ कहनेमें असमर्थ होती है ! प्रभुका प्रेम ऐसा अलौकिक, विचित्र है । संसारके अभावमें जो शान्ति है वह कर्मयोगमें मिलती है, स्वरूपका आनंद ज्ञानमार्गमें है और उससे विलक्षण आनंद भक्ति, प्रेममें होता है । ज्ञानमार्गमें संसारके अभावका आनंद होता है , प्रेममें भगवान् के भावका आनंद होता है । वह उससे विलक्षण है, अद्वितीय आनंद है ; वैसा कोई आनंद नहीं है ।
सज्जनों ! उस आनंदकी झलक कीर्तन, भजनमें आती है , थोडा आभास पड़ता है । उससे अधिक कोई लाभ नहीं है । यह अपने उध्योगसे नहीं मिलता है, अपितु भगवान् की अलौकिक, विचित्र कृपासे मिलता है । आनंद ही आनंद....!!

नारायण.....नारायण.......नारायण........नारायण
दि. २२/०४/२००१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
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