।। श्रीहरिः ।।

तत्वज्ञानका सहज उपाय-२


मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओंमें तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है । ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है । अनेक शरीरोंमें, अनेक अवस्थाओंमें चिन्मय सत्ता एक है । बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें सत्ता एक है । कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता । ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवालेमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।


यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचोंकी गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तनका ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तनका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । सबका इदंतासे भान होता है, पर अपने स्वरूपका इदंतासे भान कभी किसीको नहीं होता सबके अभावका ज्ञान होता है, पर अपने अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है । भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं । ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करनेसे ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती । वास्तवमें ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये । ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करनेसे ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा । भगवान् कहते हैं। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २/१६)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत् का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है ।’एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है । जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपनेको एक देश, काल आदिमें देखता है । अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदिमें परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है ।


वास्तवमें अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है । सांसारिक पदार्थोंकी जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है । सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है । इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है ।


अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है । इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं । अहम् ज्ञानीमें होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है । उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है । कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है । वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटानेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं ।

—'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/ch51_144.htm