।। श्रीहरिः ।।
मुक्ति सहज है-३


‘मारहिं काल अचान चपेटकी होय घडीकमें राखकी ढेरी ।’ वह दिन अचानक आ जायेगा । कहाँ बैठे हो ? आप और हम मृत्युलोकमें बैठे हैं । यहाँ सब मरनेवाले, मरनेवाले ही रहते हैं । मरनेवालोंकी जमात है । कोई रहनेवाला दिखता है क्या आपको ? फिर आप अकेले कैसे रह जाओगे भाई ! सन्तोंने कहा है —



कोई आज गया कोई काल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा ।
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकालसे ये ही रिवाज रही ॥



यहाँकी रिवाज यही रही है । अब रिवाज कैसे मिटा दोगे ? अनादिकालसे ऐसी रीति चली आ रही है ।
इस वास्ते सन्तोंने कहा है —



घर घर लाग्यो लायाणो घर घर दाह पुकार ।
जन हरिया घर आपणो राखे सो हुशियार ॥



क्या कृपा की है सन्तोंने ! आग लग जाती है न, घरोंमें ! उसे मारवाड़ी भाषामें ‘लायाणो लाग्यो’ कहते हैं । आग लग गयी । घर-घर आग लगी हुई है । ये शरीर हैं, ये सब मौतरूपी ‘आग’में जल रहे हैं । जैसे लकड़ी आगमें जलती है । ज्यों जलती है त्यों ही कम होती जाती है । ऐसे ही ये शरीर कालरुपी आगमें जल रहे हैं, उमर कम हो रही है । परन्तु दीखती है साबत । लकड़ी भी दीखती है साबत, पर जल रही है,कम हो रही है । ऐसे ही ये शरीर कालरूपी आगमें जल रहे हैं, भस्म हो रहे हैं तो ‘घर घर लाग्यो लायाणो घर घर डाह पुकार’ डाह हो रही है, पुकार हो रही है । ‘जन हरिया घर आपणो राखे सो हुशियार’ कैसे रखे ? कि भगवान् के सन्मुख हो जाय, प्रभुको पुकारें फिर मौज हो जाय, आनंद हो जाय ।



जिन सन्तोंके जीनेसे बहुत लोगोंका उद्धार हो जाय,जिनका नाम लेकर लोग सुखी हो जायँ, याद करके खुशी हो जायँ । ऐसे जितने सन्त हुए हैं उनकी वाणी याद करो । उसके अनुसार जीवन बनाओ तो निहाल हो जाओगे, कारण कि उन्होंने रास्ता सुलटा ले लिया । इस वास्ते वे ठेट पहुँच गये । आज दौड़ते तो सभी हैं, पर अंधे होकर चलते हैं । नाशवान् की तरफ चलते हैं । अरे ! अविनाशीकी तरफ चलो भाई ! नाशवान् की तरफ चलनेसे अविनाशी तत्व कैसे मिलेगा ? उत्पन्न-नष्ट होनेवाले पदार्थोंके पीछे पड़े हैं । इनसे निर्वाहमात्र कर लें । लेकिन भीतरसे यह ध्यान नहीं होना चाहिए कि पदार्थ ले लें, भोग ले लें, सुख ले लें । कुछ नहीं मिलेगा । उमर खत्म हो जायगी । समय बरबाद हो जायगा, पीछे पछताना होगा ।



सो परत्र दुख पावइ सिर धुनी धुनी पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥



भाई ! संसारकी तरफ न जा करके भगवान् की तरफ चलो । आजतक बहुत उमर चली गयी, बहुत समय चला गया, अब भी जा रहा है । प्रभुको पुकारो, ‘हे नाथ ! हे नाथ !! हे नाथ !!!’ भगवान् के नामका जप करो रात-दिन । संसारमें उपकार करो, सेवा करो । तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे जो शक्ति, सामर्थ्य एवं योग्यता है । ये संसारकी चीज संसारको दे दो । यही मुक्ति है । आनंद हो गया, मौज हो गयी । शरीर मात्र संसारका और ये स्वयं मात्र परमात्माका । शरीर संसारको सौंप दें तो सब ठीक हो जायेगा । मुक्ति सहज ही हो जायगी ।



नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

— ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे(दि.१६/०४/१९८३, मुरली मनोहर धोरा, बीकानेरके प्रवचनसे)
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/bhagwatprapti%20sahaj%20hai/ch1_6.htm