।। श्रीहरिः ।।


विभूतियोंका क्या अर्थ है ?


अब आप ध्यान देकर सुनें । अब एक बात बताता हूँ अपने कामकी । आपको कोई भी सुन्दर रूप दिखे । बहुत सुन्दर दिखे तो उस रूपपर दृष्टि न रख करके की भाई, यह सुन्दरता कहाँसे आयी ? यह आयी हुई सुन्दरता है । क्या पहचान है कि आयी हुई है ? अगर इसकी यह सुन्दरता होती तो हरदम रहनी चाहिए । जैसे नये खिले हुए फूलकी सुन्दरता रहती है, दो-तीन दिनोंके बाद वह सुन्दरता रहती है क्या ? ऐसे स्वाद है, सुन्दरता है, शब्द है, स्पर्श है, रूप है, रस है, गन्ध है, जितने जो विषय हैं, जिनमें मनुष्यका आकर्षण होता है । क्या वे विषय पहले वहाँ इतने सुन्दर थे और क्या वैसे रहेंगे ? तो वहाँ सुन्दरता उसकी नहीं है, उसमें आयी हुई है । और जिससे आयी है, वो नित्य-सौन्दर्य है वहाँ, नित्य-ऐश्वर्य है, नित्य-माधुर्य है । परमात्माके गुण विलक्षण हैं और दिव्य हैं, अलौकिक और नित्य हैं । उनकी आभाकी ये झलक आती है संसारमें । हम इन्द्रियोंके आकर्षणसे उसमें उलझ जाते हैं । वो वास्तवमें तत्व नहीं हैं । उनके भीतर जो भरा हुआ है वही तत्व है । उसीकी आभा आती है । तो जहाँ कहीं भी महत्ता दिखे, श्रेष्ठता दीखे, विलक्षणता दीखे, विचित्रता दीखे, वहाँ उन चीजोंकी कभी भी नहीं माननी चाहिये । वहाँ ऐसा माने कि आयी हुई है इनमें, है नहीं इनमें । जीवन दीखता है, जीते हुए मनुष्य विलक्षण दीखते हैं तो भगवान् कहते हैं ‘भूतनामस्मि चेतना’ ( गीता १०/२२ ) वो चेतना मेरी है । इसीका नाम विभूतियाँ है । भगवान् ने विभूतियाँ बतायी हैं तो तुम इस संसारको मत देखो । इनमें जो कुछ सार चीज है, असली चीज है । वह मेरा स्वरूप है ।


अलौकिकता दीखते ही परमात्माकी ओर वृत्ति जानी चाहिए अचानक, कि यह विलक्षणता दूसरी आ नहीं सकती, इन हाड-मांसमें हो नहीं सकती, इन चीजोंमें हो नहीं सकती । बहुत विचित्र व्याख्यान हुआ । बहुत विचित्र शास्त्रका ज्ञान हुआ, उस ज्ञानमें भी विभूति उस परमात्माकी ही है । उस विचित्र व्याख्यानमें भी उस परमात्माकी ही विभूति है । विचित्र-विवेचनमें भी परमात्माकी विभूति है । विचित्र प्रसन्नता होती है, आनंद होता है, कीर्तन करते हैं उसमें विलक्षणता आती है, वो विलक्षणता उस परमात्माकी होती है । जहाँ कहीं आपको विलक्षणता दीखे, आकर्षण दीखे । वहाँ संसारमें न अटक करके उसके मूलमें परमात्मतत्वकी ओर हमारी वृत्ति जोरदार जानी चाहिये । तब उस परमात्माको पहिचान सकेंगे और इसमें उलझ गए, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धमें, संसारमें तो परमात्मतत्वकी प्राप्ति नहीं होगी । क्योंकि हम तो यहाँ नकलीमें ही उलझ गये, यहाँ ही फँस गये । तो इसमें न फँस करके, उस परमात्मतत्वकी ओर वृत्ति जावे । यही विभूतियोंका अर्थ है, यही विश्वरूपका अर्थ है, उस परमात्मतत्वको ठीक-ठीक तरहसे जानना चाहिये । सबमें वह परमात्मा परिपूर्ण है । सब देशमें है, सब कालमें है, सब वस्तुमें है, सब व्यक्तियोंमें है, संपूर्ण घटनाओंमें है; परन्तु देखनेवाला इन घटनाओंमें, परिस्थितियोंमें, वस्तुओंमें, व्यक्तियोंमें, इन क्रियाओंमें उलझे नहीं और उसको देखे तो वह दिखेगा । और इनमें उलझ जावोगे तो वह नहीं दिखेगा । यहीं फँस जायगा ।


नारायण ! नारायण !! नारायण !!!


—‘भगवद् प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे पेज नं. ४३/४४ से

११/०६/१९८३ के प्रवचनसे ( गीता भवन, स्वर्गाश्रम, ऋषिकेश )
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/bhagwatprapti%20sahaj%20hai/ch4_43.htm