।। श्रीहरिः ।।
कल्याणका निश्चित उपाय
भगवान् ने जीव पर कृपा करके उसको अपना कल्याण करनेके लिए हीमनुष्यशरीर दिया है अपना कल्याण करनेके सिवाय मनुष्यजन्मकादूसरा कोई प्रयोजन है ही नहीं शरीर, धन-संपत्ति, जमीन-मकान, स्त्री-पुत्रआदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब मिलने औरबिछुडनेवाली हैं अतः कोई कितना ही बड़ा धनवान बन जाय, बलवानबन जाय, विद्वान बन जाय, ऊँचे पदवाला बन जाय, बड़े कुटुम्बवाला बनजाय, पर अपने कल्याणके बिना ये सब-की-सब वस्तुएँ अपने कुछ काम आयेंगी बिना दुल्हेकी बरातकी तरह सम्पूर्ण सांसारिक भोग व्यर्थ हैं इसलिए मनुष्यका खास कर्त्तव्य हैअपना कल्याण करना

एक मार्मिक बात है कि अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है कारण कि भगवान् जीवको मनुष्यशरीर देते हैं तो उसके साथ ही अपना कल्याण करनेकी स्वतंत्रता, सामर्थ्य, योग्यता और अधिकार भी प्रदान करते हैं

अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपना कल्याण करनेके लिए क्या करें ? इसका उत्तर है कि यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढतासे स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा
- मेरा कुछ भी नहीं है
- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए
- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है
- केवल भगवान् ही मेरे हैं

मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको अपना मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवनमें निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।

जब मेरा कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किस वस्तुकी चाहना करें ? अतःमेरेको कुछ भी नहीं चहिये’—ऐसा स्वीकार करते ही जीवनमें निष्कामता जाती है निष्कामता आते ही मनुष्य योगी हो जाता है अर्थात् उसको समत्वरूप योगकी प्राप्ति हो जाती हैमत्वं योग उच्यते’ ( गीता २/४८ ) कोई भी कामना होनेसे उसको चित्तवृतिनिरोधरूप योगकी भी प्राप्ति हो जाती है‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ ( योगदर्शन १/२ )
मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः असंग है‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ ( बृहदा. ४/३/१५ ) अतः मिलने और बिछुड़नेवाले किसी भी वस्तु-व्यक्तिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे मनुष्यको अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है असंगताका अनुभव होनेपर वह ज्ञानी हो जाता है

जीवमात्र परमात्माका अंश है‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है

धर्मात्मा, योगी, ज्ञानी और भक्त होनेमें ही मनुष्यका कल्याण निहित है । ऐसा होनेमें कठिनाई भी नहीं है; क्योंकि वास्तवमें मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः निर्दोष, निष्काम, असंग और भगवान् का अंश है । तात्पर्य है कि हमारा स्वरुप सत्तामात्र है । उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतःसिद्ध है और वह सत्ता भगवान् का अंश है । इसलिए साधकका कर्तव्य है कि वह उपर्युक्त चारों बातोंको दृढ़तासे स्वीकार कर ले । फिर उसका कल्याण निश्चित है ।

—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे