।। श्रीहरिः ।।
सच्ची आस्तिकता-१


गीता भगवानके समग्ररूपको मानती है, उसीको महत्त्व देती है और उसीकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता मानती है । सब कुछ भगवान् ही हैं—‘वासुदेवः सर्वम्’ ( गीता ७/१९ )—यह भगवान् का समग्ररूप है । सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि रूप तथा पदार्थ और क्रियारूप सम्पूर्ण जगत्, सम्पूर्ण जीव, सम्पूर्ण देवता—ये सब-के-सब भगवान् के समग्ररूपके अंतर्गत आ जाते हैं । इसलिए जो समग्रको जान लेना है, उसके लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रहता— ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ ( गीता ७/२ ) समग्रको जाननेका मुख्य साधन है— शरणागति । इसलिए भगवान् ने गीतोपदेशका पर्यवसान शरणागतिमें ही किया है— ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ ( गीता १८/६६ ) भगवान् ने गीताभरमें केवल शरणागतिको ही ‘सर्वगुह्यतमं’ ( सबसे अत्यन्त गोपनीय ) कहा है— ‘सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु’ ( गीता १८/६४ ) ।

वास्तवमें सत्ता एक ही है । उस एक परमात्माकी सत्ताके अधीन जीवकी सत्ता है और जीवके अधीन जगत् की सत्ता है । जीव और जगत्— दोनों परमात्मामें भासित होते हैं । गीताके सातवें अध्यायमें भगवान् ने जीवको अपनी ‘परा प्रकृति’ और जगत् को अपनी ‘अपरा प्रकृति’ बताया है । परा और अपरा— दोनों भगवान् की शक्तियाँ हैं । अतः इनको अपनी प्रकृति बतानेमें भगवान् का तात्पर्य है कि ये दोनों मेरेसे अलग नहीं हैं । शक्तिमानसे अलग शक्तिकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती । शक्तिमान शक्तिके बिना रह सकता है, पर शक्ति शक्तिमानके बिना नहीं रह सकती ।

अब शंका होती है कि जब जीव ( परा ) और जगत् ( अपरा )—दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं तो फिर जगत् की सत्ता अलग क्यों दीखती है ? इसके उत्तरमें भगवान् ने कहा है—‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ ( गीता ७/५ ) अर्थात जीवने ही जगत् को धारण किया है अर्थात जगत् को सत्ता और महत्ता दी है । जीव केवल मेरा ( भगवान् का ) अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७ ) परन्तु यह मिलने और बिछुडनेवाले शरीर-इन्द्रियों-मन-बुद्धिको अपना मान लेता है— ‘मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ ( गीता १५/७ ) । जगत् के साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही यह जन्म-मरणके चक्करमें पड़कर दुःख पा रहा है । जीवके द्वारा जगत् से माना हुआ यह सम्बन्ध ही सम्पूर्ण योनियोंका कारण है— ‘एतद्योनिनी भूतानि सर्वाणीत्युपधारय’ ( गीता ७/६ ) अर्थात् इन दोनोंके माने हुए संयोगके कारण ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी पैदा होते हैं । तात्पर्य हुआ कि जीवके द्वारा अपरासे जोड़ा गया सम्बन्ध ही मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है ।

‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं—यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है । इसका अनुभव करनेका मनुष्यमात्र अधिकारी है । प्रत्येक देश, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका मनुष्य भगवान् का भक्त होकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव कर सकता है । कारण कि भगवान् की प्राप्ति शरीरके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत शरीरके सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है । शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेदके लिए तीन बातोंको जानना आवश्यक है —शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर ‘मेरा’ नहीं है और शरीर ‘मेरे लिए’ नहीं है । यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलने और बिछुडनेवाली होती है, वह अपनी और अपने लिए नहीं होती । एक भगवान् ही हमारे ऐसे साथी हैं, जो सदा हमारे साथ रहते हैं, कभी हमसे बिछुडते नहीं । परन्तु जो मनुष्य मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंमें ही उलझे रहते हैं, नाशवान् भोगोंमें और संग्रहमें ही लगे रहते हैं, वे सदा साथ रहते हुए भी भगवान् को न प्राप्त होकर बार-बार संसारमें जन्मते-मरते रहते हैं—‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’ ( गीता ९/३ ) ।

संसारकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । उसको जीवने ही अहंता-ममता-कामनाके कारण स्वतन्त्र सत्ता दी है । जबतक साधकमें अहंता-ममता-कामना रहती है, तबतक उसको यह मानना चहिये कि परमात्मामें संसार है और संसारमें परमात्मा है । परन्तु जब उसकी अहंता-ममता-कामना मिट जायगी, तब उसकी दृष्टिमें न संसारमें परमात्मा रहेंगे, न परमात्मामें संसार रहेगा, प्रत्युत परमात्मा- ही-परमात्मा रहेंगे । परमात्मामें संसारको देखना अथवा संसारमें परमात्माको देखना अधूरी आस्तिकता है । परन्तु केवल परमात्माको ही देखना पूरी आस्तिकता है ।

—‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे