।। श्रीहरिः ।।
सच्ची आस्तिकता-२



( गत् ब्लॉगसे आगेका )
भगवान् ने कहा है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके कारण जीवका सम्बन्ध केवल भगवान् के साथ है, प्रकृतिके साथ बिलकुल नहीं है । इसलिए जड-चेतनका ठीक-ठीक विवेक करना साधकके लिए बहुत आवश्यक है । साधकको यह जानना चहिये कि हमारा विभाग ही अलग है । हम चेतन विभागमें हैं । जड विभागसे हमारा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है । सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ जड-विभागमें हैं । चेतन-विभागमें न पदार्थ है, न क्रिया है । वास्तवमें पदार्थ और क्रियाकी सत्ता ही नहीं है । इसलिए साधकको पदार्थ और क्रियासे रहित होना नहीं है, प्रत्युत वह स्वतः इनसे रहित है । साधक अव्यक्त ( निराकार ) और अक्रियरूप है । मात्र ‘करना’ प्रकृतिका और ‘न करना’ स्वयंका होता है । परमात्मतत्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, उसके लिए कुछ न करनेकी जरुरत है । करनेका आश्रय प्रकृतिका आश्रय है । वह छोड़ दिया तो तत्व ज्यों-का-त्यों रहा । तत्वमें न पदार्थ है, न क्रिया है, प्रत्युत केवल विश्राम है ।

भगवान् ने जीवात्माके लिए कहा है—‘नित्यः सर्वगतः’ ( गीता २/२४ ), ‘येन सर्वमिदं ततं’ ( गीता २/१७ ) अर्थात् इस जीवात्मासे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, यह नित्य रहनेवाला और सबमें परिपूर्ण है । इसलिए साधकको चाहिये कि वह शरीर-अंतःकरणको न देखकर अपनी सर्वव्यापी सामान्य सत्तामें स्थित हो जाय । जो सब जगह व्याप्त है, वही साधकका स्वरुप है । उसका स्वरुप शरीर-अंतःकरणमें नहीं है । साधकमें ‘मैं हूँ’ की मुख्यता न होकर ‘है’ की मुख्यता रहे । जो ‘है’, वही वास्तवमें अपना है ।

गीतामें भगवान् ने कहा है—‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ ( ७/७ ) और सन्त-महत्मओंका भी अनुभव है—‘वासुदेवः सर्वम्’ ( ७/१९ ) । भगवान् और उनके भक्त—ये दो ही संसारका अकारण हित करनेवाले है* । इसलिए इन दोनोंकी बात मान लेनी चहिये । उनकी बातके आगे हमारी बातका कोई मूल्य नहीं है । हमें भले ही वैसा न दिखे, पर बात उनकी ही सच्ची है । इसलिए हमें जगत् को जगत्-रूपसे न देखकर भगवत्-रूपसे ही देखना चाहिये । संसारमें जो सात्विक, राजस और तामस भाव ( गुण, पदार्थ और क्रिया ) देखनेमें आते हैं, वे भी भगवान् के ही स्वरुप हैं । भगवान् के स्वरुप होते हुए भी वे गुण हमारे उपास्य नहीं हैं । हमारा उपास्य गुणातीत है । इसलिए भगवान् ने कहा है—‘न त्वहं तेषु ते मयि’ ( गीता ७/१२ ) ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’ । गुण उपास्य इसलिए नहीं हैं कि हमें तीनों गुणोंसे ऊँचा उठना है । कारण कि जो मनुष्य तीनों गुणोंसे मोहित होता है, वह गुणातीत भगवान् को नहीं जानता+। जो गुणोंसे मोहित नहीं होते, उनको सब जगह भगवान् ही दिखते हैं, पर गुणोंसे मोहित मनुष्यको संसार ही दीखता है, भगवान् नहीं दीखते ।

यहाँ शंका हो सकती है कि भगवान् में राजस-तामस भाव कैसे होते हैं ? इसका समाधान है कि जैसे घर एक ही होता है, पर उसमें रसोई भी होती है और शौचालय भी अथवा एक ही शरीरमें उत्तमांग भी होते है और अधमांग भी, ऐसे ही एक भगवान् में सात्विक भाव भी हैं और राजस-तामस भाव भी ।

संसारको मिथ्या मानकर केवल भगवान् को सत्य मानना भी एक पद्धति ( साधना-मार्ग ) है । पर इस पद्धतिमें संसार बहुत दूरतक साथ रहता है । कारण कि त्याग करनेसे त्याज्य वस्तुकी सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है । इसलिए इस पद्धतिमें भगवान् से अभेद तो होता है, पर अभिन्नता ( आत्मीयता ) नहीं होती । परन्तु जो संसाररूपसे भगवान् को देखते हैं, वे भगवान् के साथ अभिन्न हो जाते हैं ।



टिप्पणी—
* हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
( रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड ४७/३ )


+ त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
( गीता ७/१३ )

—‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/meretogirdhargopal/ch5_38.htm