।। श्रीहरिः ।।


सत्संग की आवश्यकता-१


एक सत्संगी भाईने एक व्यक्तिसे सत्संगमें चलनेको कहा तो वह व्यक्ति बोला- ‘मैं पाप नहीं करता, अत: मुझे सत्संगमें जानेकी आवश्यकता नहीं सत्संगमें वे जाते हैं, जो पापी होते हैं । वे सत्संगमें जाकर अपने पाप दूर करते हैं । जिस प्रकार अस्पतालमें रोगी जाते हैं और अपना रोग दूर करते हैं । निरोग व्यक्तिको अस्पतालमें जानेकी क्या आवश्यकता ? जब हम पाप नहीं करते तो हम सत्संगमें क्यों जायें ? ऊपरसे देखने पर यह बात ठीक भी दीखती है।

अब इस बातको ध्यान देकर समझें । श्रीमद्भागवतमें एक श्लोक आता है—

निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।


क उत्तमश्लोकगुणांनुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुघ्रात्।।
(श्रीमद्भा.१०/१/४)

‘जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामबाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवादसे पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ?’

मनुष्य तीन प्रकार को होते हैं—एक जीवन्मुक्त, दूसरे साधक तथा तीसरे साधारण संसारी (विषयी) व्यक्ति ।

जिनके कोई तृष्णा नहीं रही, कामना नहीं रही, जो पूर्ण पुरुष हैं, जो ‘आत्माराम’ हैं, जिनके ग्रन्थि-भेदन हो गया है, जो शास्त्र-मर्यादासे ऊपर उठ गये हैं—ऐसे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष भी भगवान् की भक्ति करते हैं, भजन करते हैं और भगवान् के गुण सुनते हैं—


‘जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।’
(मानस, उत्तर. ४२)


‘जो निरन्तर भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ध्यान छोड़कर भगवान् के चरित्र सुनते हैं ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन सुधा सिन्धु’ पुस्तकसे