।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
विषयोंमें सुख होता तो बड़े-बड़े धनी, भोगी और पदाधिकारी भी सुखी होते । पर विचारपूर्वक देखनेपर पता चलता है कि वे दुःखी ही हैं । पदार्थोंमें शान्ति है ही नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती नहीं । विचारशील व्यक्तिको तो पद-पदपर अनुभव भी होता है कि इनमें सुख नहीं है ।
चाख चाख सब छाडिया माया रस खारा हो ।
नाम-सुधारस पीजिये छिन बारंबारा हो ॥


जो-जो भोग सुख-बुद्धिसे भोगे गये, उन-उन भोगोंसे धीरज नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग उत्पन्न हुए, चिंता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चाताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शान्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक-उद्वेग आये—ऐसा यह परिणाम प्रत्यक्ष देखनेमें आता है । इससे मालूम होता है कि विषयोंमें सुख नहीं है । जिस प्रकार स्वप्नमें जल पीते हैं, पर प्यास नही मिटती, उसी प्रकार पदार्थोंसे न तो शान्ति मिलती है और न जलन मिटती है । मनुष्य सोचता है कि इतना धन हो जाय, इतना ऐश्वर्य हो जाय तो शान्ति मिलेगी; किन्तु उतना हो जानेपर भी शान्ति नहीं होती, उलटे पदार्थोंके बढ़नेसे उनकी लालसा और बढ़ जाती है—‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’ धन-परिवार होनेपर उनके और बढ़नेकी लालसा होती है । इस प्रकार ‘और हो जाय’, ‘और हो जाय’—यह क्रम चलता ही रहता है । किंतु संसारमें जितना धन-धन्य है, जितनी स्त्रियाँ हैं, जितनी सामग्रियाँ हैं, वे सब-की-सब एक साथ किसी एक व्यक्तिको मिल जायँ, तब भी उनसे उसे तृप्ति नहीं हो सकती । शास्त्रमें कहा है—

यत् पृथिव्यां व्रिहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तमिति मत्वा शमं व्रजेत् ॥
इसका कारण यह है कि जीव परमात्माका अंश तथा चेतन है और पदार्थ प्राकृत तथा जड हैं । चेतनकी भूख जड पदार्थोंके द्वारा कैसे मिट सकती है । भूख है पेटमें और हलवा बाँधा जाय पीठपर तो भूख कैसे मिटे । प्यास लगनेपर गरमागरम बढ़िया-से-बढ़िया हलवा खानेसे भी प्यास नहीं मिट सकती ।भूखे व्यक्तिकी भूख ठंडा जल पीनेसे कैसे निवृत्त हो सकती है । इसी प्रकार जीवको प्यास तो है चिन्मय परमात्माकी, किंतु वह प्यास मिटाना चाहता है जड पदार्थोंके द्वारा ! इसमें मुख्य कारण है—अविवेक ! जीवका अविवेक मिटानेमें पदार्थ सर्वथा असमर्थ हैं; अतः वे शान्ति प्रदान नहीं कर सकते । उलटी राह चलनेसे गन्तव्य स्थानपर कैसे पहुँचेंगे । चाहे ब्रह्माजीकी आयुके कालतक जीव ऐश्वर्यके संग्रह और भोगोंके भोगनेमें लगा रहे तो भी उसकी भूख कभी नहीं मिट सकती, उसे शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति तो तभी मिलेगी, जब कामनाका अत्यन्त अभाव होगा ।
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् ।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नाहर्तः षोडशीं कलाम् ॥
‘जो भी संसारमें इष्ट पदार्थोंके मिलनेसे सुख होता है तथा जो स्वर्गीय महान् सुख है, वे सब सुख मिलकर भी तृष्णानाशके सुखके सो़लहवें हिस्सेके बराबर भी नहीं हो सकते ।’
सुखं देवराजस्य न सुखं चक्रवर्तिनः ।
यत् सुखं वितरागस्य मुनेरेकान्तशीलिनः ॥
एकान्तशील वीतराग मुनिको जो सुख है, वह सुख न तो इन्द्रको है न चक्रवर्ती सम्राटको ही ।’ संतोंने क्या ही सुन्दर कहा है—
ना सुख काजी पंडिताँ ना सुख भूप भयाँ ।
सुख सहजाँ ही आवसी तृष्णा रोग गयाँ ॥

‘तृष्णारूपी रोगके चले जानेपर सुख सहज ही आ जायगा ।’ जबतक पदार्थोंकी लोलुपता है, दासता है, तबतक सुख कहाँ ? दासता, लोलुपता, दीनता मिटनेपर ही सुख होगा और यह मिटेगी चाहके न रहनेपर ।

चाह गयी चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह ।
जिनको कछू न चाहिये सो जग शाहंशाह ॥

जबतक चाह है, तबतक चिंता नहीं मिटती और जबतक चिंता नहीं मिटती, तबतक सुख नहीं हो सकता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे