।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-५

सुख यदि पदार्थोंमें होता तो राजा-महाराजा राज्यका और पदार्थोंका त्याग क्यों करते । राजा भर्तृहरिने कहा है—

एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः ।
कद शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलने क्षमः ॥

‘अकेला, स्पृहारहित, शान्तचित्त, करपात्री और दिगंबर होकर हे शम्भो ! मैं कब अपने कर्मोंको निर्मूल करनेमें समर्थ होऊँगा ।’

भर्तृहरि सब कर्मोंका निर्मूलन यानि अत्यन्ताभाव—ऐसी अवस्था केवल चाहते ही थे, ऐसी बात नहीं, वे उसे प्राप्त करके ही रहे । उनकी व्याकरणके नियमोंकी कारिकाएँ (श्लोक) देखनेमें आती हैं, उनका बड़ा सुन्दर साहित्य मिलता है । वे व्याकरण-साहित्य आदिके प्रकाण्ड विद्वान थे और अध्ययन आदि जिस काममें लगे, उसे उन्होंने बड़ी तल्लीनतासे किया । जब राज्यकार्य हाथमें लिया, तब उसे बड़ी तत्परतासे और लगनसे सँभालते रहे । रात्रिमें स्वयं वेश बदलकर घूमते और निरिक्षण करते कि मेरी प्रजाको कोई कष्ट तो नहीं है । इस प्रकार प्रजाका पालन भी किया । सारे काम किये, पर किसी जगह भी टिके नहीं, अटके नहीं । पर जब वैराग्य ले लिया, तब फिर उसे छोडकर कहीं गये नहीं । ठीक ही है—रहनेयोग्य, ठहरनेयोग्य एक निर्भय स्थान तो वैराग्य ही है; अन्य तो सभी भयप्रद हैं । स्वयं भर्तृहरिजी कहते हैं—

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥


‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं । एक वैराग्य ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’

राजा भर्तृहरिको अपनी पहली अवस्थामें किये हुए कार्योंपर तो पश्चात्ताप ही हुआ, अन्तमें संतोष तो वैराग्यसे ही हुआ । वे कहते हैं—

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

‘हमने भोगोंको नहीं भोग, भोगोंने ही हमें भोग लिया, हमें समाप्त कर दिया ।’ अच्छे कुलमें जन्म होनेपर भी उससे गिरनेका भय रहता है । धनवान् को अपने पुत्रसे भी भय लगता है; फिर राजासे भय हो, इसमें तो कहना ही क्या है ! मानमें दिनताका भय बना रहता है तो बलमें रिपुका भय उत्पन्न हो जाता है । बुढ़ापेका भय तो प्रसिद्ध ही है । उस अवस्थामें मनुष्य तीन पगोंसे चलता है ।

लकरी पकरी सुखरी करमें पग पंथ परे न भरे डग री ।
नगरी तनरी सुपुरानि परी, अब लूटत है भगरी बगरी ॥
न घरी भर बैठ भज्यो सुहरी कथ कूर करी जगरी सगरी ।
अब री बिरधापन बात बुरी सु अरी सम लागत है सुत री ॥

एक सन्त कहते हैं—

जरा कुती जोबन ससो काल अहेरी लार ।
पाव पलकमें मारसी गरब्यो कहा गँवार ॥

जरा आनेपर वह बल। वह उत्साह, वह साहस कहाँ गया !

शास्त्रमें वाद-विवादका बड़ा भय रहता है । अन्य व्यक्तियोंकी अपेक्षा तो पढ़े-लिखेको ताप भी अधिक होता है । गँवारके केवल आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक—ये तीन ताप होते हैं, पर पढ़े-लिखे विद्वानके ताप सात होते हैं—(१) आधिभौतिक, (२) आधिदैविक, (३) आध्यात्मिक, (४) अभ्यास (शास्त्रका अभ्यास), (५) भंग(अपमानका भय), (६) विस्मार (भूल न जाऊँ—इसकी चिंता) और (७) गर्व (विद्वत्ताका अभिमान) ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुध-सिन्धु’ पुस्तकसे