।। श्रीहरिः ।।

कल्याणका सुगम उपाय
अपनी
मनचाहीका त्याग-१
दूसरेके मनकी बात पूरी करनेकी कशिश करें । दूसरा हमसे क्या चाहता है, जहाँतक हो सके उसके मनकी बात पूरी करनेकी चेष्टा करें । उसके मनकी बात दो तरहकी हो सकती है—एक शुद्ध और एक अशुद्ध । अशुद्ध बात पूरी करनेकी जरुरत नहीं है; क्योंकि उसमें उसका हित नहीं है । अगर उसकी चाहना शुद्ध है, उसकी रूचि बढ़िया है, तो उसको पूरा करना हमारा कर्तव्य होता है । दूसरी एक बात है कि उसकी इच्छा तो शुद्ध है, पर उसको पूरा करना हमारी सामर्थ्यके बाहरकी बात है, उसको हम पूरा नहीं कर सकते । अतः उसके लिये माफ़ी माँग लें कि मैं आपका यह काम कर नहीं सकता; मेरी सामर्थ्य नहीं है । धनकी,बलकी, विद्याकी, योग्यताकी, अधिकारकी सामर्थ्य नहीं है मेरेमें । अगर सामर्थ्य हो तो जहाँतक बने, उसके मनकी बात पूरी कर दें ।

गीतामें कामनाके त्यागकी बात आयी है । जैसे, हमें ऐसा धन मिले, हमारा ऐसा हुक्म चले, हमारी बात रहे—यह जो भीतरका भाव है, यही कामना है । आप विशेष ध्यान दें, इसीलिए एक बात याद आ गयी । मैंने पढाईकी, व्याख्यान सुने, पुस्तकें पढ़ीं, खूब विचार किया और व्याख्यान भी खूब देने लग गया । उस समय मैंने सोचा कि कामना क्या है, तो यह बात समझमें आयी कि रुपये-पैसेकी इच्छा, सुख भोगनेकी इच्छा, मान-बड़ाईकी इच्छा आदि—ये सब कामनाएँ हैं । फिर मैंने इन कामनाओंके त्यागकी बात सोची और इनके त्यागकी कुछ श्रेणियाँ बनायीं । परन्तु कई वर्षोंके बाद जो बात मेरी समझमें आयी, वह बात कहता हूँ आपको । यह इसलिये कहता हूँ कि आप ध्यान दो तो आज ही वह बात आपकी समझमें आ जाय । कई वर्षोंसे जो चीज मिली है, वह बात यह है कि ‘मेरे मनकी बात पूरी हो जाय’—यही कामना है । मेरे मनकी हो जाय—इसको आदमी जबतक नहीं छोडेगा, तबतक उसको शान्ति नहीं मिलेगी; वह जलाता रहेगा, दुःखी रहेगा, पराधीन रहेगा ।

बड़े भारी दुःखकी बात है कि आज उलटी बात हो रही है ! मेरे मनकी बात हो जाय तो मैं स्वतन्त्र हो गया—ऐसा वहम पड़ा हुआ है । कोई हमारे मनकी बात पूरी करेगा तो हमें उसके अधीन होना ही पड़ेगा । हमारे मनकी बात कोई दूसरा पूरी कर दे—इसमें बड़ा आराम दीखता है, पर है महान् संकट ! स्वतन्त्रता दीखती है, पर है महान् पराधीनता ! यह विशेष ख्याल करनेकी बात है । आपको इस वास्ते कही है कि व्याख्यान देते हुए वर्षोंतक यह मेरी समझमें नहीं आयी । आप घरमें यह चाहते हो कि स्त्री-पुत्र मेरे मनके अनुकूल चलें । भाई-बन्धु भी मेरे कहनेमें चलें । माता-पिता भी मेरी रुचिके अनुसार चलें । यह जो बात है न, यह आपके लिये महान् घातक है । यह परमात्माकी प्राप्ति तो नहीं होने देगी, और नरकोमें जाओगे—इसमें सन्देह नहीं दीखता । इतनी हानिकारक बात है यह !

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे