।। श्रीहरिः ।।

अपने साधनको

सन्देहरहित बनायें-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता—भगवान् तो माता-पिता है, उनके सामने तो मनुष्य अबोध शिशु ही है ।

स्वामीजी—भगवान् के सामने ऐसा मानना की मैं तो अबोध शिशु हूँ, एक बालक हूँ, बेसमझ हूँ—यह बहुत अच्छी चीज है । बेसमझका अर्थ है की अभी समझना और बाकी है; बिलकुल नहीं समझता —ऐसी बात नहीं है । बालकके सामने मुहर और बतासा रख दो तो वह बतासा ले लेगा, पर मुहर नहीं लेगा । आपको वह बेसमझ दीखता है, पर अपनी दृष्टिसे वह बेसमझ नहीं है । अबोध होते हुए भी वह बोधपूर्वक काम करता है । आपको मुहर बढ़िया दीखती है, पर बच्चेको मुहर बढ़िया नहीं दीखती । उसकी समझमें मुहरमें कोई स्वाद नहीं, पर बतासा मीठा लगता है; अतः मुहरका वह क्या करे ? अपनी समझमें वह बढ़िया चीज लेता है । बतासा लेता है तो बोधपूर्वक ही लेता है, बेसमझीसे नहीं । ऐसे ही आपलोग धनमें, भोगोमें लगे हुए हो और इसको अच्छा समझते हो, पर ज्ञानीकी दृष्टिमें बिलकुल पापोमें लगे हो और नरकोमें, जन्म-मरणमें, दुःखमें जा रहे हो । परन्तु ऐसा कहनेपर आप मानते नहीं । बस, किसी तरहसे धन ले ही लो, भोग भोग ही लो । हम चाहे अज्ञानी कह दें, तो भी अपनेको अज्ञानी थोड़े ही मानोगे ? कहनेपर बुरा लगेगा, सहोगे नहीं ।

मैं अपने-आपको भी पूरा जानकर नहीं मानता हूँ । मैं सब विषयमें ठीक जानता हूँ—ऐसा मेरेको जँचता नहीं । किसी विषयमें मैं जानता हूँ तो उसको कह देता हूँ, पर मैं बड़ा जानकर हूँ, यह मेरे मनमें आती ही नहीं । इससे क्या होगा ? कि और जानकारी बढ़ेगी । अगर अपनेको जानकर मान लिया तो जानकारी बढ़नी समाप्त हो जायगी; क्योंकि भरे घड़ेको और क्या भरें ? उसमें गुंजाइश ही नहीं । जानकारी तब बढ़ेगी, जब अपनेमें कमी मालूम देगी । पुस्तकोमें हमने ऐसा पढ़ा है कि किसी भी कक्षामें रहें, अज्ञान (अनजानपना) आगे रहेगा—‘अज्ञानं पुरतस्तेषां भाति कक्षासु कासुचित् ।’ आपको कई बातें आती हैं, पर जुती बनानी आती है क्या ? कहना ही पड़ेगा कि मैं नहीं जानता । अतः कहीं-न-कहीं तो अनजानपना रहेगा ही ।

बहुत वर्षोंकी बात है, देशनोकमें चातुर्मास था । वहाँ मैंने कहा कि यह छोटा बालक मेरेसे ज्यादा जानकर है । कहा कैसे ? मेरेसे कोई पूछे कि इस बालककी माँ कौन-सी है, तो मैं नहीं बता सकता । परन्तु इस बालकसे कोई पूछे तो यह बता देगा कि अमुक मेरी माँ है । अतः यह ज्यादा जानकर हुआ कि नहीं ? किसी विषयमें यह जानकर है, किसी विषयमें मैं जानकर हूँ, तो टोटलमें बराबर ही हुए । इसलिये मैं जानकर हूँ—यह अभिमान करना गलतीकी बात है ।

सर्वथा जानकर तो केवल परमात्मा ही हैं । जो तत्वज्ञ है, जीवन्मुक्त है, वह तत्त्वके विषयमें तो जानकर है, पर बहुत-से विषयोंमें अनजान है । जो वास्तवमें तत्त्वको जाननेवाले हैं, उनमें जाननेका अभिमान नहीं होता । अगर अभिमान होता है तो तत्त्वको जाना ही नहीं । अभिमान तो किसी व्यक्तित्वको लेकर, किसी विशेषताको लेकर ही होता है । स्थूल शरीरकी स्थूल जगत् के साथ एकता है । सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म जगत् के साथ एकता है । कारण शरीरकी कारण जगत् के साथ एकता है । आत्माकी आत्माके साथ एकता है । अतः एक देशमें वह विशेषता कैसे मानोगे ? अगर मानेगा तो वह अज्ञानी हुआ ।

श्रोता—महाराजजी ! मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे है—यह अभिमान क्या पतन करनेवाला नहीं है ?

स्वामीजी—नहीं, यह तो भगवान् का भजन है । भगवान् में ही अपनापन दीखना चाहिये । दूसरेमें अपनापन नहीं दीखना चाहिये । एक भगवान् ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं । ये शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि आदि कोई मेरे नहीं ।

आज मनमें यह आयी कि किसी बातको आप मानो, किसी साधनमें चलो, उसमें सन्देह-रहित होकर, सुलझ करके चलो तो जरूर लाभ होगा । परन्तु अपनेमें अज्ञान है और साथमें संशय रखता है तो उसका पतन हो जायगा—‘अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति’ (गीता ४/४०) । उसका न यह लोक ठीक होगा, न परलोक ठीक होगा और न सुख ही मिलेगा—‘नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः’ (गीता ४/४०) ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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