।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
दुःख-नाशका उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि सुख-दुःख देनेके लिये परिस्थितिके पास समय ही नहीं है ! वह बेचारी तो अपनी धुनमें जा रही है, आपको छूती ही नहीं, फिर वह आपको सुख-दुःख कैसे दे सकती है । इसीलिये सत्संगसे, सद्विचारोंसे, सद्भावोंसे आदमी सदा मस्त, मौजमें रह सकता है; क्योंकि परिस्थिति दुःख देती है नहीं । दुःख तो उसको पकड़ करके आप कर रहे हो । अनुकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप सुख मान लेते हो और प्रतिकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप दुःख मान लेते हो, यह गलती होती है आपकी । वास्तवमें परिस्थिति तो जा रही है बेचारी ! दिन-रातकी तरह यह सुखदायी-दुःखदायी परिस्थिति आती रहेगी । जैसे दिनके बाद रात और रातके बाद दिन आता रहता है, ऐसे ही सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता रहेगा ।

मनुष्यके लिये कल्याणकी बात खुली है । मनुष्य-शरीर केवल अपना कल्याण करनेके लिये है, भोग भोगनेके लिये नहीं‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७/४४/१) । सुख-दुःख दो तरहके होते हैं । हमारे पास धन, सम्पत्ति, वैभव, बेटा, पोता, मकान आदि अनुकूल सामग्री है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत सुखी है । हमारे पास सामग्री नहीं है; खानेको अन्न नहीं, पहननेको वस्त्र नहीं, रहनेको मकान नहीं‒ऐसी दशा है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत दुःखी है । एक तो सुख-दुःखकी यह परिभाषा है । दूसरी, जो मनमें हरदम प्रसन्न रहता है, कभी दुःखी नहीं होता, उसको सुखी कहते हैं और जो मनमें दुःखी रहता है, उसको दुःखी कहते हैं । इस प्रकार एक तो सुख-सामग्रीका नाम सुख है और दुःख-सामग्रीका नाम दुःख है तथा एक हृदयमें प्रसन्नताका नाम सुख है और हृदयमें जलनका नाम दुःख है । इनमें सामग्रीवाला सुख-दुःख तो परिस्थितिका है और हृदयका सुख-दुःख मूर्खताका है । इस मूर्खताको मिटानेकी खास जिम्मेवारी मनुष्यके ऊपर है । जैसे किसी भाषाका ज्ञान न हो तो उस अज्ञानको दूर करनेके लिये हम वह भाषा सीख सकते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख हमारेमें है ही नहीं‒इस विद्याको मनुष्यमात्र सीख सकता है । इस ज्ञानके लिये ही मानवशरीर मिला है । अतः मानवशरीरमें आकर सुखी-दुःखी नहीं होना है, प्रत्युत सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना है । ऊँचा उठना क्या होता है ? कि न सुख ही पहुँचता और न दुःख ही पहुँचता है । पातञ्जलयोगदर्शनके व्यासभाष्यमें एक श्लोक आया है‒
प्रज्ञाप्रासादमारुह्याऽशोच्यः शोचतो जनान् ।
भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति ॥
(१/४७ का व्यासभाष्य)
अर्थात्‌ जैसे पर्वतपर खड़ा हुआ मनुष्य नीचे पृथ्वीपर खड़े लोगोंको देखता है, ऐसे ही प्रज्ञारूपी प्रासाद-(महल-)पर खड़ा हुआ अशोच्य पुरुष शोक करनेवाले लोगोंको देखता है ।

समाधि-अवस्थामें योगीकी बुद्धि ऋतम्भरा अर्थात्‌ सत्यको धारण करनेवाली हो जाती है‒‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा’ (योगदर्शन १/४८) । विवेक-विचारसे भी ऐसी बुद्धि प्राप्त हो जाती है । जैसे पृथ्वीपर कभी बाढ़ आती है, कभी आग लगती ही, कभी सुखदायी परिस्थिति आती है, कभी दुःखदायी परिस्थिति आती है, तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर पर्वतपर खड़े हुए मनुष्यके पास उनमेंसे कोई भी परिस्थिति नहीं पहुँचती । वह केवल देखता है, सुखी-दुःखी नहीं होता । इसको सुख-दुःखसे ऊँचा उठना कहते हैं और ऐसी स्थिति आपकी, हमारी सबकी हो सकती है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे