।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे, शरीरके बदलनेपर हम अपना बदलना नहीं देखते । बालकपनसे लेकर आजतक शरीर कितना बदला गया, पर हम कहते हैं कि मैं वही हूँ, जो बालकपनमें था । शरीर बदला गया, स्थान बदल गया, समय बदल गया, वस्तुएँ बदल गयीं, साथी बदल गये, परिस्थिति बदल गयी, अवस्था बदल गयी, क्रियाएँ बदल गयीं, पर सब कुछ बदलनेपर भी स्वयं नहीं बदला । देश, काल आदिमें फर्क पड़ा, पर अपनेमें फर्क नहीं पड़ा । ऐसे ही संसार कितना ही बदल जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । वस्तुभेद, व्यक्तिभेद और क्रियाभेद होनेपर भी तत्त्वभेद नहीं होता । हमारी दृष्टि उस परमात्मतत्त्वकी तरफ ही रहनी चाहिये । जैसे, कोई व्यापारी कोयला खरीदता और बेचता है, पर उसकी दृष्टि पैसोंपर ही रहती है कि इतने पैसे आ गये ! व्यापारीकी चीजें तो बदल जाती हैं, पर पैसा वही रहता है । ऐसे ही सब व्यवहार करते हुए भी हमारी दृष्टि परमात्मापर ही रहनी चाहिये ।

यह सिद्धान्त है कि जो आदि-अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता और जो आदि-अन्तमें भी होता है, वह वर्तमानमें भी होता है । संसार पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा, इसलिये संसार नहीं है । परमात्मा पहले भी थे और पीछे भी रहेंगे, इसलिये परमात्मा ही हैं । संसारको सत्यरूपसे देखनेवाले कहते हैं कि परमात्मा है ही नहीं और परमात्माको सत्यरूपसे देखनेवाले कहते हैं कि संसार है ही नहीं ! संसारमें जो ‘है’-पना दीखता है, वह उस परमात्माकी ही झलक है । जैसे रस्सीमें साँप दीखता है तो वास्तवमें ‘है’-पना रस्सीमें है, साँपमें नहीं, पर रस्सीका ‘है’-पना साँपमें दीखता है । ऐसे ही ‘है’-पना परमात्मामें है, संसारमें नहीं है, पर परमात्माका ‘है’-पना संसारमें संसाररूपसे दीखता है । जैसे चनेका आटा फीका होता है, पर जब उसमें चीनी पड़ जाती है, तब उससे बनी बूँदी मीठी लगती है । वह मिठास वास्तवमें चीनीकी ही है, बेसनकी नहीं । ऐसे ही संसारमें जो ‘है’-पना दीखता है, वह संसारका न होकर परमात्माका ही है ।
अगर भक्तियोगकी दृष्टिसे देखें तो सब संसार परमात्मस्वरूप ही है ! भगवान्‌ कहते हैं‒
‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ (गीता ७/७)
‘मेरे सिवाय इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं है ।’
‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९)
‘सब कुछ परमात्मा ही हैं ।’
‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९/१९)
‘सत्‌ और असत्‌ भी मैं ही हूँ ।’
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति   बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                                  (श्रीमद्भा ११/१३/२४)
‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियाँसे जो कुछ (शब्दादि विषय) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें और स्वीकार करके अनुभव कर लें ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे