।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे माँके हृदयमें अपना दुःख दूर करनेकी अपेक्षा भी बालकका दुःख दूर करनेका विशेष भाव रहता है, ऐसे ही साधकका भी दूसरेका दुःख दूर करनेका विशेष भाव होना चाहिये । दूसरोंको सुख देनेका भाव होनेसे अपनी सुखभोगबुद्धि स्वतः मिटती है ।

ज्ञानयोगमें विवेकपूर्वक विचार करनेसे सुखभोगबुद्धिका नाश हो जाता है । जैसे, प्यासकी जलसे स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अर्थात्‌ प्यास जलरूप ही है, ऐसे ही सुखासक्तिकी भी संसारसे स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अर्थात्‌ संसारकी सुखासक्ति या सुखभोगबुद्धि संसाररूप ही है । जैसे मनुष्यको जलकी प्यास दुःख देती है, जल दुःख नहीं देता, ऐसे ही संसारकी सुखासक्ति ही दुःख देनेवाली है, संसार दुःख नहीं देता । अतः सुखासक्ति ही सम्पूर्ण दुःखोंका, अनर्थोंका, अवगुणोंका, पापोंका मुख्य कारण है‒ऐसा विचार करनेसे संसारमें सुखभोगबुद्धि मिट जाती है ।

भक्तियोगमें साधक ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसको दृढ़तासे मान ले कि वास्तवमें बात यही है । माननेके बाद अनुभव स्वतः हो जायगा । अनुभव न होनेका दुःख जितना तेज होगा, उतनी ही जल्दी अनुभव होगा । जब सब रूपोंमें भगवान्‌ ही हैं तो फिर वे मेरेको क्यों नहीं दीखते ? अगर माँ मौजूद है तो फिर वह मेरेको गोदीमें क्यों नहीं लेती ? इस प्रकार छटपटाहट लगे तो बहुत जल्दी सुखभोगबुद्धिका नाश होकर परमात्माका अनुभव हो जायगा । परन्तु संसारके सम्बन्धसे जितना सुख लिया है, उससे अधिकमात्रामें सुखभोगबुद्धिके न मिटनेका दुःख होना चाहिये ।

अगर साधकमें सुखभोगबुद्धिको मिटानेकी उत्कट अभिलाषा हो, पर उसको मिटानेमें अपनेमें निर्बलताका अनुभव हो और साथ-साथ यह विश्वास हो कि सर्वसमर्थ भगवान्‌की कृपाशक्तिसे ही मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है तो ऐसी स्थितिमें वह भक्त होकर भगवान्‌के परायण हो जाता है । भगवान्‌के परायण होनेपर फिर स्वतः भीतरसे प्रार्थना, पुकार निकलती है, जिससे सुगमतापूर्वक सुखभोगबुद्धि मिट जाती है और एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है‒इसका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे