।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत
गीताकी शरणागति



(गत ब्लॉगसे आगेका)
          मनुष्यमें जो भी विशेषता, विलक्षणता आती है, वह सब भगवान्‌से ही आती है । भगवान्‌ कहते हैं‒
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं     श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
                                               (गीता १०/४१)

       यदि भगवान्‌में विशेषता, विलक्षणता न होती तो वह मनुष्यमें कैसे आती ? जो चीज अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है ? मनुष्यसे यही भूल होती है कि वह उस विशेषताको अपनी विशेषता मानकर अभिमान कर लेता है और जहाँसे विशेषता आयी है, उस तरफ देखता ही नहीं ! मिली हुई चीजको अपनी मान लेता है, पर उसे देनेवालेको अपना मानता ही नहीं ! वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत उसको देनेवाले भगवान्‌ अपने हैं । उन भगवान्‌के ही चरणोंकी शरण लेनी है ।

        वास्तवमें हम सब-के-सब सदासे ही भगवान्‌के हैं, उनके ही शरणागत हैं । इसीलिये कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं कह सकता कि मैंने अपनी मरजीसे इन माता-पिताके यहाँ जन्म लिया है और मैं अपनी मनचाही वस्तु, परिस्थिति आदि प्राप्त कर सकता हूँ । कारण कि यह सब भगवान्‌के हाथमें है । इसमें हमारी मरजी काम नहीं करती, प्रत्युत भगवान्‌की ही मरजी काम करती है ।

               करी गोपाल की सब होइ ।
               जो अपनौं पुरुषारथ मानत,              अति झूठो है सोइ ॥
               साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल,            ये सब डारौ धोइ ।
               जो कुछ लिखि राखी नँदनंदन,        मेटि सकै नहिं कोइ ॥
               दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौं रोइ ।
               सूरदास स्वामी करुनामय,            स्याम-चरन मन पोइ ॥
                                                                               (सूरविनय २७६)

        सब कुछ भगवान्‌ ही करते है; क्योंकि उन्होंने सदासे ही हमें अपनी शरणमें ले रखा है । अब हमें केवल उनकी शरणागति स्वीकार करनी है, उनकी हाँ-में-हाँ मिलानी है, उनकी मरजीमें अपनी मरजी मिलानी है ।

        भगवान्‌की तरफसे तो हम सब उनके ही हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर ८६/२) । परन्तु हम अपनी तरफसे संसारके बन जाते हैं । अतः वास्तवमें हमें भगवान्‌के शरणागत नहीं होना है, प्रत्युत संसारकी शरणागतिका त्याग करना है, अपनी भूलको मिटाना है । गीता सुननेसे अर्जुनकी भी भूल मिट गयी और उनको ‘मैं तो सदासे भगवान्‌का ही हूँ’‒ऐसी स्मृति प्राप्त हो गयी । अर्जुन कहते हैं‒
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः     करिष्ये वचनं तव ॥
                                                      (गीता १८/७३)

        ‘हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है । मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ । अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ।’

         भगवान्‌ने कहा‒‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ तो अर्जुनने कहा‒‘करिष्ये वचनं तव’तात्पर्य है कि शरण लेनेके बाद मनुष्यका काम है‒भगवान्‌की आज्ञाका पालन करना ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे