।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
सफला एकादशी-व्रत (सबका)
मन-बुद्धि अपने नहीं



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
बुद्धिके हम नहीं हैंहमारी बुद्धि है । हमारी बुद्धि है;अत: इसको हम काममें लें या न लें । परन्तु हम बुद्धिके होते तो मुश्किल हो जाती । वृत्तिकी उपेक्षा करो तो आपकी स्वरूपमें स्थिति स्वतःसिद्ध है । परन्तु वृत्तिका निरोध करनेमें बहुत अभ्यास करना पड़ेगा । वृत्तिकी उपेक्षामें कोई अभ्यास नहीं है । गीताका योग क्या है समत्वं योग उच्यते (२ । ४१)  सम नाम परमात्माका है । परमात्मामें स्थित होना गीताका योग है और चित्तवृत्तियोंका निरोध करना योगदर्शनका योग है । आप कहते हैं कि मन नहीं रुकता ! पर मन रोकनेकी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है परमात्मामें स्थित होनेकी । जहाँ आप चुप होते हैंवहाँ आप परमात्मामें ही हैं और परमात्मामें ही रहोगेक्योंकि कोई भी क्रियावृत्तिपदार्थघटना,परिस्थिति परमात्माको छोड़कर हो सकती है क्या वस्तु,व्यक्तिपदार्थघटना आदिकी उपेक्षा कर दो तो परमात्मामें ही स्थिति होगी । हाँइसमें नींद-आलस्य नहीं होना चाहिये । नींदमें तो अज्ञान  (अविद्या) में डूब जाओगे । नींद खुलनेपर कहते हैं कि  मेरेको कुछ पता नहीं थापर आप तो उस समय थे ही । अत: नींद-आलस्य तो हो नहीं और चलते-फिरते भी आप चुप हो जायँकुछ भी चिन्तन न करें । यह गीताका योग है । इससे बहुत जल्दी सिद्धि होगी । योगदर्शनके योगमें बहुत समय लगेगा । आप परमात्मामें वृत्ति लगाओगे तो वृत्ति आपका पिण्ड नहीं छोड़ेगीवृत्ति साथ रहेगी । इसलिये मन-बुद्धिकी उपेक्षा करोउनसे उदासीन हो जाओ । अभी लाभ मत देखो कि हुआ तो कुछ नहीं  ! आप इसकी उपेक्षा कर दो । दवाईका सेवन करो तो वह गुण करेगी ही ।

आप खयाल करें । बुद्धि करण है और मैं कर्ता हूँबुद्धि मेरी हैमैं बुद्धिका नहीं हूँयह सम्बन्ध-विच्छेद बहुत कामकी चीज है । आप बुद्धि हो ही नहीं । कुत्ता चिन्तन करता है तो आपपर क्या असर पड़ता है कुत्तेकी बुद्धिके साथ अपना जैसा सम्बन्ध हैवैसा ही अपनी बुद्धिके साथ सम्बन्ध है । आपकी आत्मा सर्वव्यापी है तो कुत्तेमें भी आपकी आत्मा है । फिर आप कुत्तेके मन-बुद्धिकी चिन्ता क्यों नहीं करते कि कुत्तेके मन-बुद्धिको आपने अपना नहीं माना । तात्पर्य यह हुआ कि मन-बुद्धिको अपना मानना ही गलती है ।

जो अलग होता हैवह पहलेसे ही अलग होता है ।सूर्यसे प्रकाशको कोई अलग कर सकता है क्या आप शरीरसे अलग होते हैं तो पहलेसे ही आप शरीरसे अलग हैं । आप मुफ्तमें ही अपनेको शरीरके साथ मानते हैं । शरीरमें आप नहीं हो और आपमें शरीर नहीं है । खुद जड़तामें बैठ गये तो अहंता हो गयी और जड़ताको अपनेमें बैठा लिया तो ममता हो गयी । अहंता-ममतासे रहित हुए तो शान्ति स्वतःसिद्ध हैनिर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति(गीता २ । ७१) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे