।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
जैसे किसी आदमीको कपड़ोंके सहित कहें अथवा कपड़ोंसे रहित कहेंआदमी तो वही हैऐसे ही परमात्माको गुणोंके सहित (सगुण) कहें अथवा गुणोंसे रहित (निर्गुण) कहेंपरमात्मा तो वही (एक ही) हैं । भेद हमारी दृष्टिमें है । परमात्मामें भेद नहीं है । सगुण-निर्गुणका भेद बद्ध जीवकी दृष्टिसे है । मुक्तकी दृष्टिसे तो एक परमात्मतत्त्व ही है‒‘वासुदेव: सर्वम् ।’ बद्धकी दृष्टि वास्तविक नहीं होती,प्रत्युत मुक्तकी दृष्टि वास्तविक होती है । अत: कोई सगुणकी उपासना करे अथवा निर्गुणकीउसकी मुक्तिमें कोई सन्देह नहीं है । कारण कि वह गुणोंकी उपासना नहीं करताप्रत्युत भगवान्‌की उपासना करता है । गुण तो बाँधनेवाले होते हैं*

कोई परमात्माको सगुण मानता है और कोई निर्गुण मानता है तो यह उनका अपना दृष्टिकोण है । इस विषयको समझनेके लिये एक दृष्टान्त है । पाँच अन्धे थे । उन्होंने एक आदमीसे कहा कि भाईहमें हाथी दिखाओ । हम जानना चाहते हैं कि हाथी कैसा होता है उस आदमीने उनको एक हाथीके पास ले जाकर खड़ा कर दिया । एक अन्धेके हाथमें हाथीकी सूँड आयी । दूसरेके हाथमें हाथीका दाँत आया । तीसरेके हाथमें हाथीका पैर आया । चौथेके हाथमें हाथीकी पूँछ आयी । पाँचवेंको हाथीके ऊपर बैठा दिया । उन्होंने अपने-अपने हाथ फेरकर हाथीको देख लिया कि ठीक हैयही हाथी है ! अब वे पाँचों आपसमें झगड़ा करने लगे । एकने कहा कि हाथी तो ओवरकोटकी बाँहकी तरह होता है । दूसरेने कहा कि नहींहाथी तो मूसलकी तरह होता है । तीसरा बोला कि तुम दोनों झूठे होहाथी तो खम्भेकी तरह होता है । चौथेने कहा कि बिलकुल गलत कहते होहाथी तो रस्सेकी तरह होता है । पाँचवाँ बोला कि हाथी तो छप्परकी तरह होता हैयह मेरा अनुभव है । इस तरह सबका वर्णन सही होते हुए भी गलत हैक्योंकि वह एक अंगका वर्णन है,सर्वांगका नहीं । सबने हाथीके एक-एक अंगको हाथी मान लियापर वास्तवमें सब मिलकर एक हाथी है । ऐसे ही सगुण-निर्गुणसाकार-निराकारका झगड़ा है । वास्तवमें सब मिलकर एक ही परमात्माका वर्णन है । एक ही वस्तु अलग-अलग कोणसे देखनेपर अलग-अलग दिखायी देती हैऐसे ही एक ही परमात्मा अलग-अलग दृष्टिकोणसे अलग-अलग दीखते हैं ।

गीतामें आया है कि परमात्मा सत् भी हैंअसत् भी हैं‒‘सदसच्चाहम्' (९ । १९)वे सत्-असत्‌से पर भी हैं‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७) और वे न सत् हैंन असत् हैं‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) । तात्पर्य है कि परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता । वे सगुण भी हैं,निर्गुण भी हैंसाकार भी हैंनिराकार भी हैं और इन सबसे विलक्षण भी हैंजिसका अभीतक शास्त्रोंमें वर्णन नहीं आया है ! उसका पूरा वर्णन हो सकता भी नहीं । प्राकृत मन,बुद्धिवाणीके द्वारा प्रकृतिसे अतीत तत्त्वका वर्णन हो ही कैसे सकता है ?

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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*सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
  निबध्नन्ति महाबाहो  देहे  देहिनमव्ययम् ॥
                                            (गीता १४ । ५)

          ‘हे महाबाहो ! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्वरज और तम‒ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं ।’