।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख अमावस्या, वि.सं.–२०७१, मंगलवार
अमावस्या
कर्मयोग (भौतिक साधना)



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
मतलब यह है कि परधर्ममें गुणोंका बाहुल्य भी हो और उसका आचरण भी अच्छी तरहसे किया जाता हो तथा अपने धर्ममें गुणोंकी कमी हो और उसका आचरण भी ठीक तरहसे नहीं बन पाता होतब भी परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म ही श्रेयान्’‒अति श्रेष्ठ है । जैसे पतिव्रता स्त्रीके लिये अपना पति सेव्य हैचाहे वह विगुण ही हो । श्रीरामचरितमानसमें कहे हुए‒
वृद्ध  रोगबस  जड़  धनहीना ।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥

‒ये आठों अवगुण अपने पतिमें विद्यमान हों और उसकी सेवा भी सांगोपांग नहीं होती होतथा पर-पति गुणवान् भी हो और उसकी सेवा भी अच्छी तरह की जा सकती होतो भी पत्नीके लिये अपने पतिकी सेवा ही श्रेष्ठ है,वही सेवनीय हैपर-पति कदापि सेवनीय नहीं । उसी प्रकार स्वधर्म ही श्रेयान्’ (श्रेष्ठ) हैपरधर्म कदापि नहीं ।
स्वधर्मे निधन श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

‒इससे भगवान्‌ने यह भाव बतलाया है कि कष्टोंकी सीमा मृत्यु है और स्वधर्म-पालनमें यदि मृत्यु भी होती हो तो वह भी परिणाममें कल्याणकारक है । तात्पर्य यह कि परधर्ममें प्रतीत होनेवाले गुणउसके अनुष्ठानकी सुगमता और उससे मिलनेवाले सुखकी कोई कीमत नहीं हैक्योंकि वह परिणाममें महान् भयावह है । बल्कि अपने धर्ममें गुणोंकी कमीअनुष्ठानकी दुष्करता और उसमें होनेवाले कष्ट भी महान् मूल्यवान् हैंक्योंकि वह परिणाममें कल्याणकारक है । फिर जिस स्वधर्ममें गुणोंकी कमी भी न होअनुष्ठान भी अच्छी प्रकार किया जा सकता हो तथा उसमें सुख भी होता होवह सर्वथा श्रेष्ठ है‒इसमें तो कहना ही क्या है ।

उपर्युक्त श्लोककी व्याख्याके अनुसार मनुष्योंको कर्तव्य-कर्मोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करनेमें लग जाना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे
○○○‒○○○‒○○○
अपनेमें विशेषता केवल व्यक्तित्वके अभिमानसे ही दीखती है ।
          वस्तुओंके बिना भी हम रह सकते हैं । जिनके बिना हम रह सकते हैं, उनके हम गुलाम क्यों बनें ?
          शरीर नजदीक दीखता है और परमात्मा दूर दीखते हैं‒यही अज्ञान है । कारण कि शरीर नित्य अप्राप्त है और परमात्मा नित्यप्राप्त है हैं । शरीरके साथ हमारा एक क्षण भी संयोग नहीं होता और परमात्माके साथ हमारा एक क्षण भी वियोग नहीं होता ।
          शरीरको संसारसे और स्वयंको परमात्मासे अलग मानना गलती है ।
          सच्चे धर्मात्मा मनुष्यको किसीकी भी गर्ज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज (आवश्यकता) रहती है ।
‒‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे