।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, रविवार
शब्दसे शब्दातीतका लक्ष



(गत ब्लॉगसे आगेका)

(२) प्रमाद‒असावधानी (बेपरवाह) को प्रमाद’ कहते हैं । अगर वक्ता जो विषय जानता है, उसका तत्परतासे विवेचन नहीं करता, मन लगाकर ठीक तरहसे नहीं कहता, दूसरोंको समझानेमें उपेक्षा (बेपरवाह) करता है तो उसकी बातका दूसरोंपर असर नहीं पड़ता ।

(३) लिप्सा‒रुपये-पैसे, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार, सुख-आराम आदि कुछ भी पानेकी इच्छाको लिप्सा’ कहते हैं । अगर वक्तामें लिप्सा होगी तो वह स्पष्ट बात नहीं कह सकेगा, प्रत्युत वही बात कहेगा, जिससे स्वार्थ सिद्ध हो । अगर उसको स्वार्थमें बाधा लगती दीखेगी तो वह सच्ची बातको भी छिपा लेगा ।

(४) करणापाटव‒करणोंमें पटुता, कुशलता न होनेको करणापाटव’ कहते हैं । वक्ता जिन मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि करणोंसे अपने भाव प्रकट करता है, उनमें कुशलता नहीं है, वह श्रोताकी भाषाको नहीं जानता, श्रोताके भाव, योग्यता आदिको नहीं समझता, श्रोताको उसकी योग्यताके अनुसार समझानेके लिये वह दृष्टान्त, युक्ति आदि नहीं जानता तो उसकी बात दूसरोंकी समझमें नहीं आती और उसका असर भी नहीं पड़ता ।

वाणीके इन चारों दोषोंसे रहित वक्ता बहुत दुर्लभ होता है । शास्त्रमें आया है‒

शतेषु जायते शूरः    सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता शतसहस्रेषु दाता जायेत वा न वा ॥
(व्यासस्मृति ४।५८-५९; स्कन्दपुराण, माकुमा२।७०)

सैकड़ों मनुष्योंमें कोई एक शूर पैदा होता है, हजारोंमें कोई एक पण्डित पैदा होता है, लाखोंमें कोई एक वक्ता पैदा होता है, दाता तो पैदा हो भी अथवा न भी हो !’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो’ पुस्तकसे