।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है
बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज



(गत ब्लॉगसे आगेका)

हमारे जीवनका आधार आयु है, न कि ‘रुपया’ । इतना होनेपर भी हमारे भाई लोगोंकी पैसोंमें तो बड़ी भारी आसक्ति रुचि और सावधानी है । वे बिना मतलब एक कौड़ी भी खर्च करना नहीं चाहते, परंतु ‘समय’ की ओर ध्यान ही नहीं है । हमारा समय इतनी देर कहाँ लगा और कहाँ गया, इसमें हमने क्या उपार्जन किया, क्या कमाया‒इस ओर हमारा खयाल ही नहीं है । बड़े आश्चर्यकी बात है । ठीक कहा है श्रीभर्तृहरिने‒‘पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।’

इस प्रमाद-मदिरासे उन्मत्तता छायी हुई है । नशेमें जैसे मनुष्यको अपने शरीरका, कपड़ोंका होश नहीं रहता, ऐसे ही इस विषयमें होश नहीं है, चेत नहीं है, इधर ध्यान नहीं है, लक्ष्य नहीं है । नहीं तो ऐसे अमूल्य समयका इस प्रकार सत्यानाश क्यों किया जाता, समय जो निरर्थक ही चला जाता है, यही उसका सत्यानाश करना है । ऐसे अमूल्य समयको कीमती-से-कीमती काममें लानेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये । क्या करें विचार करनेसे मालूम होता है कि बहुत-से भाई तो ताश-चौपड़, खेल-तमाशेमें ही समयको लगा देते हैं, बीड़ी-सिगरेट, हुक्का, चरस, भाँग आदि नशेके सेवनमें इस समयको बर्बाद कर देते हैं तथा ऐसे ही हँसी-मजाकमें समय खो देते हैं । वे सोचते नहीं कि हम इस आयुमें उपार्जन क्या कर रहे हैं और खर्च कितना हो रहा है ।

समय तेजीसे जा रहा है और समयके बीत जाते ही मौत उसी क्षण आ जायगी । मृत्युमें जो देर हो रही है, केवल हमारे जीवनका समय शेष है उसीके आधारपर । हम जी रहे हैं‒यह बुद्धिके आधारपर नहीं, बलके आधारपर नहीं, विद्याके आधारपर नहीं, बल्कि समयके आधारपर । जीवनके आधारपर, आयुके आधारपर । वह आयु इतनी तेजीसे निरन्तर जा रही है कि इसमें कभी आलस्य नहीं होता, कभी रुकावट नहीं होती । यह लगातार दौड़ती चली जा रही है और हम बिलकुल असावधान हैं । कितने आश्चर्य और दुःखकी बात है । आश्चर्य इस बातका है कि बुद्धिमान् होकर हम इतनी हानि कर रहे हैं और दुःख इस बातका है कि परिणाम क्या होगा, इसका हम विचार नहीं कर रहे हैं । की हुई भूलका दुःख और परिणाम कर्ताको ही भोगना पड़ता है, अन्य किसीको नहीं । अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह जल्दी-से-जल्दी आध्यात्मिक उन्नतिमें अपने समयको लगाये । भर्तृहरिने कहा है‒

यावत् स्वस्थमिदं  कलेवरगृहं   यावच्च  दूरे  जरा ।
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता  यावत् क्षयो नायुषः ॥
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् ।
प्रोद्दीप्ते भवने  तु  कूपखननं   प्रत्युद्यमः  कीदृशः ॥

‘जबतक स्वास्थ्य ठीक है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियोंमें साधन-भजन-ध्यान करनेकी शक्ति है, आयु समाप्त नहीं हो गयी है, विवेकी बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि तभीतक आध्यात्मिक उन्नतिके लिये बड़ा भारी प्रयत्न कर ले; क्योंकि घरमें आग लग जानेपर कोई कहे कि जल्दी करो, कुआँ खुदवाओ, आग लग गयी है, जल चाहिये, तो यह सुनकर चाहे कितनी ही जल्दी की जाय, उद्योग किया जाय; किंतु अब कुआँ खुदकर कब जल आयेगा । आयु तो जल्दी-जल्दी खतम हो रही है, इसलिये जल्दी-से-जल्दी अपने उद्धारके लिये चेष्टा करनी चाहिये । आध्यात्मिक उन्नतिके लिये देर नहीं करनी चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे