।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
श्रीभीमसेनी-निर्जला एकादशी-व्रत (सबका)
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो सत्त्वगुणमें स्थित होते हैं, वे ऊर्ध्वगतिमें जाते हैं । जो रजोगुणमें स्थित होते हैं, वे मध्यलोकमें जाते हैं । जो तमोगुणमें स्थित होते हैं, वे अधोगतिमें जाते हैं‒

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था    अधो  गच्छन्ति  तामसाः ॥
                                                   (गीता १४ । १८)

इस प्रकार जड़-चेतनके विभागको ठीक तरहसे समझना चाहिये । जड़-अंश (शरीर) छूट जाता है, हम रह जाते हैं । जबतक मुक्ति नहीं होती, तबतक जड़ता साथमें रहती है । इसलिये एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जानेपर स्थूलशरीर तो छूट जाता है, पर सूक्ष्म और कारणशरीर साथमें रहते हैं । मुक्ति होनेपर केवल चेतनता रहती है, जड़ता साथमें नहीं रहती अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर साथमें नहीं रहते । परन्तु इसमें एक बहुत सूक्ष्म बात है कि मुक्ति होनेपर भी जड़ताका संस्कार रहता है । वह संस्कार जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर मतभेद करनेवाला होता है । जैसे द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचिन्त्यभेदाभेद‒ये पाँच मुख्य मतभेद हैं, जो शैव और वैष्णव आचार्योंमें रहते हैं । जबतक मतभेद है, तबतक जड़ताका संस्कार है । परन्तु मुक्तिके बाद जब भक्ति होती है, तब जड़ताका यह सूक्ष्म संस्कार भी मिट जाता है । भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंमें जड़ता सर्वथा नहीं रहती, केवल चेतनता रहती है । जैसे, राधाजी सर्वथा चिन्मय हैं ।

मनुष्योंके कल्याणके लिये तीन योग बताये गये हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग[*] । कर्मयोग जड़को लेकर चलता है, ज्ञानयोग चेतनको लेकर चलता है और भक्तियोग भगवान्‌को लेकर चलता है । कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो लौकिक साधन हैं‒लोकेऽस्मिद्विविधा निष्ठा’ (गीता ३ । ३), पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । कारण कि जगत् (क्षर) तथा जीव (अक्षर)‒दोनों लौकिक हैं‒‘क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६) । परन्तु भगवान् क्षर और अक्षर दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं‒उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । जिसकी संसारमें ही आसक्ति है, जो संसारको मुख्य मानते हैं, जिनका आत्माकी तरफ इतना विचार नहीं है, पर जो अपना कल्याण चाहते हैं, उनके लिये कर्मयोग मुख्य है । अपने-अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार निष्कामभावसे अर्थात् केवल दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करना कर्मयोग है । सकामभावमें जड़ता आती है पर निष्कामभावमें चेतनता रहती है । निष्कामभाव होनेके कारण कर्मयोगी जड़- अंशसे ऊँचा उठ जाता है । अगर निष्कामभाव नहीं हो कर्म होंगे, कर्मयोग नहीं होगा । कर्मोंसे मनुष्य बंधता है‒कर्मणा बध्यते जन्तुः’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] योगास्त्रयो मया  प्रोक्ता   नृणां   श्रेयोविधित्सया ।
   ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
                                           (श्रीमद्भा ११ । २०। ६)