।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, शनिवार
पराधीनता और स्वाधीनता


(गत ब्लॉगसे आगेका)
आदि अविद्या अटपटी घट-घट बीच अड़ी ।
कहो कैसे समझाइये,    कुएँ   भाँग  पड़ी ॥

उसी कुएँका पानी पी-पीकर सब पागल हो रहे हैं । साधु, गृहस्थ, पण्डित, मूर्ख, ब्राह्मण, वैश्य‒सबके एक ही धुन सवार हैहाय पैसा ! हाय पैसा !! जिस दिन पदार्थोंकी गुलामी भीतरसे निकल जायगी और यह बहम मिट जायगा कि आदमी रुपयोंसे बड़े बनते हैं, उस दिन लाखों, करोड़ों रुपये रहनेपर भी आप स्वतन्त्र हैं और एक कौड़ी न रहनेपर भी आप स्वतन्त्र हैं । परंतु जबतक तृष्णा है तबतक आपके पास रुपये हों तो भी आप दरिद्र हैं और रुपये न हों तो भी आप दरिद्र हैं । ये सब ‘पर’ हैं । इसी प्रकार सैन्यबल, राज्यबलके रहते हुए भी आप निर्बल हैं । क्योंकि यह पराया बल है, पराये बलसे आप पराधीन होते हैं, स्वाधीन नहीं । अतः जड़ताके आश्रयका त्याग करो और चिन्मय परमात्माका आश्रय लो; जो ‘पर’ नहीं स्वहैं, अपने हैं । परमात्माके सिवाय कोई अपना नहीं है । उनके आधीन होते ही आप स्वाधीन हो जाते हैं, स्वतन्त्र हो जाते हैं । उनके आश्रित होते ही दुनिया तथा दुनियाके नाशवान् पदार्थ ही नहीं, अपितु परमात्मा आपके वशमें हो जायँगे । अतः पदाथकि आश्रित न रहें, उनकी गुलामी न करें । रुपये-पैसे न्याययुक्त कमाओ और उनका सदुपयोग करो । आप करोड़पति या लखपति कब हों ? जब कि करोड़ या लाख रुपयोंको ठोकर मारकर चल दें और मनपर कोई असर न पड़े । परन्तु यदि लाख रुपयोंमेंसे चार-पाँच हजार रुपये भी खर्च हो जायँ और भीतर खनखनाहट हो, तो आप लखपति नहीं, लख-दास हो और पराधीन हो । परन्तु यदि वस्तुएँ आपके आधीन हैं, तो आप स्वाधीन हो, चाहे रुपये आपके पास हों या न हों । रुपये हो जायँ, न हो जायँ इसकी परवाह नहीं ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उचते ॥
                                                    (गीता २ । ४८)

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥
                                                   (गीता ४ । २२)

यदि सिद्धिके गुलाम हो जायँगे तो असिद्धिमें दुःख पाना पड़ेगा । पराधीनता नहीं छूटेगी ।

यदि अपने कमाए हुए रुपयोंसे आप बड़े हो जाते हैं तो सोचो कि आप बड़े हुए कि रुपये बड़े हुए ? रुपयोंको आपने पैदा किया है या आपको रुपयोंने पैदा किया है । रुपयोंसे अपनेको बड़ा मानना‒यह बहम पड़ गया है । बड़प्पन रुपयोंके होनेमें नहीं, रुपयोंके सदुपयोगमें है । रुपयोंके द्वारा बढ़िया-से-बढ़िया काम करो । कभी-कभी रुपये तो खर्च कर देते हैं; परन्तु कंजूसी कायम रखते हैं । रुपये नरकोंमें ले जानेवाले नहीं हैं, अपितु कृपणता नरकोमें ले जानेवाली है । अतः सज्जनो ! आप अवसर पडनेपर खूब खर्च करो । लुटाओ भी मत, परन्तु कंजूसी मत करो । भीतरसे रुपयोंकी गुलामी निकाल दो । रुपये आप पासमें रखो, न रखो, ज्यादा रखो, थोड़े रखो, कोई आग्रह नहीं । परंतु उनकी जो दासता है, गुलामी है‒यह गलत है । आप परमात्माके चेतन अंश हो और चेतन अंशको रुपये-दास बना लें, यह बड़े दुःख एवं आश्चर्यकी बात है । इस वास्ते उनके दास न बनें और प्रभुके चरणोंका आश्रय लें, तो सदा स्वतन्त्र हो जाओगे ।

तः इस पराधीनतासे छूटनेका उपाय है कि हम स्वीकार कर लें कि हम भगवान्के है और भगवान् हमारे है । संसार हमारा नहीं है और हम संसारके नहीं है । परंतु जो भी सांसारिक चीजेंशरीर, धन, विद्या, बुद्धि, बल हमारे पास है; सब संसारकी सेवाके लिये है, अपने लिये नहीं । लेना किसीसे कुछ नहीं, देना-ही-देना है । अतः भगवान्के चरणोंकी शरण होकर अपनी कहलानेवाली सामग्री, शक्ति तथा सामर्थ्यसे सबकी सेवा करें; जिससे हम स्वाधीन हो जायँ ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे