।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, रविवार
अनन्तचतुर्दशी-व्रत, व्रत-पूर्णिमा
अविनाशी बीज


 २६-१०-८२, बम्बई
उपनिषदोंमें आता है कि जैसे सोनेसे बने हुए सब गहनोंमें सोना ही होता है, मिट्टीसे बने हुए सब बर्तनोंमें मिट्टी ही होती है । लोहेसे बने हुए सब अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा ही होता है । गीतामें भी आया है कि सम्पूर्ण जगत्का प्रभव तथा प्रलय मैं ही हूँ । ‘अहं कृत्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥’ (गीता ७ । ६) । गीतामें सोना, मिट्टी तथा लोहा, इनके उदाहरण तो नहीं दिये गये हैं, किन्तु बीजका दृष्टान्त दिया है कि सम्पूर्ण जगत्का बीज मैं हूँ । बीजके साथ ‘सनातनः’ विशेषण दिया, मानो अनादि बीज मैं हूँ‘बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।’ (गीता ७ । १०) । गीता १ । १८ में कहाअविनाशी बीज मैं हूँ ‘बीजमव्ययम् ।’ गीता १० । ३९ में कहासंसारमें जड़-चेतन, स्थावर-जंगम यावन्मात्र वस्तु है, उन सबका बीज मैं हूँ‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।’

बीजमात्र वृक्षसे पैदा होते हैं और वृक्षको पैदा करके स्वयं बीज नष्ट हो जाता है, मानो बीजसे अंकुर निकल आता है और वृक्षरूप हो जाता है और वह बीज स्वयं खतम हो जाता है; परंतु गीतामें भगवान् अपनेको संसारमात्रका बीज कहते हुए भी यह एक विलक्षण बात बताते हैं कि मैं बीज हूँ, पर अनादि बीज हूँ, पैदा हुआ बीज नहीं हूँ‘बीजमव्ययम् ।’ अव्यय बीज कहनेका मतलब है कि संसार मेरेसे पैदा हो जाता है; परन्तु मैं जैसा-का-तैसा ही रहता हूँ, साधारण बीजकी तरह मैं मिटता नहीं हूँ गीता १० । २० में जहाँ भगवान् विभूतियोंका वर्णन आरम्भ करते हैं वहाँ भगवान् कहते हैं कि मैं ही सबका आत्मा हूँ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।’ और सबके हृदयमें मैं ही स्थित हूँ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’, (गीता १५ । १५), ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता १३ । १७); ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता १८ । ६१); यह कहनेका अर्थ हुआ कि संसारका कारण मैं ही हूँ, सब संसार मिटनेपर मैं ही रहता हूँ, संसारके रहते हुए भी मैं सबमें परिपूर्ण हूँ और सबके हृदयमें विराजमान हूँ । इससे ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’ यह सिद्ध हुआ ।

सोना, मिट्टी और लोहेका जहाँ उदाहरण दिया है वहाँ गहनोंमें सोना दीखता है, बर्तनोंमें मिट्टी दीखती है और अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा दीखता है, पर इस तरहसे संसारमें परमात्मा नहीं दीखते हैं । वृक्षमें बीज दीखता नहीं, पर बीजके आनेपर ऐसा पता लगता है कि इस वृक्षमें ऐसा बीज है और ऐसे बीजसे यह वृक्ष पैदा हुआ है । सम्पूर्ण वृक्ष बीजसे ही निकलता है और बीजमें ही समाप्त हो जाता है । आरम्भ बीजसे होता है और अन्त बीजमें ही होता है अर्थात् वह वृक्ष चाहे सौ वर्षतक रहे, पर उसकी अन्तिम परिणति बीजमें ही होगी । बीजके सिवाय और क्या होगा ? ऐसे ही भगवान् संसारके बीज हैं अर्थात् भगवान्से ही संसारकी उत्पत्ति होती है और भगवान्में ही लीन हो जाता है तो अन्तमें एक भगवान् ही बाकी रहते हैं‘शिष्यते शेषसंज्ञ ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे