।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७३, सोमवार
साधकोपयोगी प्रश्नोत्तर



(गत ब्लॉगसे आगेका)


प्रश्नमैं साधक हूँ’‒ऐसी अहंताके बिना साधन कैसे होगा ?

स्वामीजी‘मैं साधक हूँ’‒इसमें दो भाव होते हैं‒१. मैं साधक हूँ, दूससे साधक नहीं हैं और २. मैं साधक हूँ; अतः मुझे साधनसे विरुद्ध काम नहीं करना है ।

मैं साधक हूँ, दूसरे साधक नहीं हैं‒ऐसा भाव होनेसे अभिमान आता है । यह अभिमान आसुरी सम्पत्ति है (गीता १६ । १४-१५), जो बन्धनका कारण है‒‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६ । ५) । परन्तु मैं साधक हूँ; अतः मैं साधनसे विरुद्ध काम कैसे कर सकता हूँ ?‒ऐसा भाव होनसे अभिमान नहीं आता, प्रत्युत साधनमें तत्परता आती है, जिससे साधनकी सिद्धि होती है ।

प्रश्नअपनापन (ममता)-के बिना दान कैसे दिया जायगा ? कारण कि अपनी वस्तुका ही दान होता हैं ।

स्वामीजीवस्तुमें अपनापन वास्तवमें नहीं है, प्रत्युत माना हुआ है । वह माना हुआ अपनापन भी केवल कर्तव्य-पालनके लिये ही है । अतः मनुष्य दान-पुण्य कर सकता है, धन आदिसे निर्लिप्त रह सकता है । परन्तु ममता करनेवाला दान-पुण्य कर ही नहीं सकता; क्योंकि वह कृपण हो जाता है । वह अन्यायपूर्वक कमाता है, पर न्यायपूर्वक जहाँ खर्च करना चाहिये, वहाँ खर्च नहीं करता । वह दूसरोंका धन हड़पनेके लिये उद्योग करता है और मौका लगनेपर हड़प भी लेता है । अतः ऐसा व्यक्ति क्या दान-पुण्य करेगा ? वह दान-पुण्य कर ही नहीं सकता । एक कहावत है कि ‘दाताका धन अपना नहीं और शूरवीरका सिर अपना नहीं’ । अपना माननेवाला न तो दाता हो सकता है और न शूरवीर ही हो सकता है ।

प्रश्न‘मैं भगवान्‌का हूँ’‒ऐसा माननेसे ‘मैं’-पना रह जायगा न ? और श्रुति भी कहती है‒‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’ (बृहदारण्यक १ । ४ । २) अर्थात् दूसरेसे भय होता है । अतः इससे साधन कैसे होगा ? इससे तो द्वैतपना ही दृढ़ होगा ।

स्वामीजीऐसी बात नहीं है । भगवान् द्वितीय (दूसरे) नहीं हैं, प्रत्युत आत्मीय हैं । आत्मीयसे भय नहीं होता, प्रत्युत निर्भयता होती है । भय तो दूसरेसे होता है; जैसे-बालकको कुत्ते, कौए आदिसे भय होता है, पर माँसे भय नहीं होता । बालक माँकी गोदमें निर्भय रहता है । माँ तो एक जन्मकी होती है, पर भगवान् सदाकी माँ हैं । भगवान्‌ सदासे अपने हैं, दूसरे हैं ही नहीं । उनमें दूसरेपनकी सम्भावना ही नहीं है । फिर अपने प्रभुसे भय कैसे होगा ? वास्तवमें भगवान्‌से अलग होनेपर, अपनेको भगवान्‌से अलग माननेपर ही भय होता है अर्थात् भगवान्‌से अलग होकर संसारको अपना माननेसे ही भय होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त समागम’ पुस्तकसे