।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
 कामदा एकादशी-व्रत (सबका)
गृहस्थमें कैसे रहें ?




(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गृहस्थको अतिथिके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये ?

उत्तर‒अतिथिका अर्थ हैं‒जिसके आनेकी कोई तिथि, निश्चित समय न हो । अतिथि-सेवाकी मुख्यता गृहस्थ-आश्रममें ही है । दो नम्बरमें इसकी मुख्यता वानप्रस्थ-आश्रममें है । ब्रह्मचारी और संन्यासीके लिये इसकी मुख्यता नहीं है ।

जब ब्रह्मचारी स्नातक बनता है अर्थात् ब्रह्मचर्य-आश्रमके नियमोंका पालन करके दूसरे आश्रममें जानेकी तैयारी करता है तब उसको यह दीक्षान्त उपदेश दिया जाता है‒‘मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।’ (तैत्तिरीयोपनिषद्, शिक्षा ११ । २) अर्थात् माता, पिता, आचार्य और अतिथिको ईश्वर समझकर उनकी सेवा करो । गृहस्थ-आश्रममें जानेवालोंके लिये ये खास नियम हैं । अतः गृहस्थको अतिथिका यथायोग्य आदर-सत्कार करना चाहिये ।

अतिथि-सेवामें आसन देना, भोजन कराना, जल पिलाना आदि बहुत-सी बातें हैं, पर मुख्य बात अन्न देना ही है । जब रसोई बन जाय, तब पहले विधिसहित बलिवैश्वदेव करे । बलिवैश्वदेव करनेका अर्थ है‒विश्वमात्रको भोजन अर्पित करना । फिर भगवान्‌को भोग लगाये । फिर कोई अतिथि, भिक्षुक आ जाय तो उसको भोजन कराये । भिक्षुक छः प्रकारके कहे गये हैं‒

ब्रह्मचारी   यतिश्चैव   विद्यार्थी   गुरुपोषकः ।
अध्वगः क्षीणवृत्तिश्च षडेते भिक्षुकाः स्मृताः ॥

‘ब्रह्मचारी, साधु-संन्यासी, विद्याध्ययन करनेवाला, गुरुकी सेवा करनेवाला, मार्गमें चलनेवाला और क्षीणवृत्ति-वाला (जिसके घरमें आग लगी हो; चोर-डाकू सब कुछ ले गये हों, कोई जीविका न रही हो आदि)‒ये छः भिक्षुक कहे जाते हैं’; अतः इन छहोंको अन्न देना चाहिये ।

यदि बलिवैश्वदेव करनेसे पहले ही अतिथि, भिक्षुक आ जाय तो ? समय हो तो बलिवैश्वदेव कर ले, नहीं तो पहले ही भिक्षुकको अन्न दे देना चाहिये । ब्रह्मचारी और संन्यासी तो बनी हुई रसोईके मालिक हैं । इनको अन्न न देकर पहले भोजन कर ले तो पाप लगता है, जिसकी शुद्धि चान्द्रायणव्रत[*] करनेसे होती है । अतिथि घरपर आकर खाली हाथ लौट जाय तो वह घरके मालिकका पुण्य ले जाता है और अपने पाप दे जाता है । अतः अतिथिको अन्न जरूर देना चाहिये ।

गृहस्थको भीतरसे तो अतिथिको परमात्माका स्वरूप मानना चाहिये और उसका आदर करना चाहिये, उसको अन्न-जल देना चाहिये, पर बाहरसे सावधान रहना चाहिये अर्थात् उसको घरका भेद नहीं देना चाहिये, घरको दिखाना नहीं चाहिये आदि । तात्पर्य है कि भीतरसे आदर करते हुए भी उसपर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि आजकल अतिथिके वेशमें न जाने कौन आ जाय !

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[*] चान्द्रायणव्रतकी विधि इस प्रकार है‒अमावस्याके बाद प्रतिपदाको एक ग्रास, द्वितीयाको दो ग्रास‒इस क्रमसे एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमाको पन्द्रह ग्रास अन्न ग्रहण करे । फिर पूर्णिमाके बाद प्रतिपदासे एक-एक ग्रास कम करे अर्थात् प्रतिपदाको चौदह, द्वितीयाको तेरह आदि । तात्पर्य है कि चन्द्रमाकी कला बढ़ते समय ग्रास बढ़ाना और कला घटते समय ग्रास घटाना ‘चान्द्रायणव्रत’ है । ग्रासके सिवाय और कुछ भी नहीं लेना चाहिये ।