।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, बुधवार
श्राद्धादिकी अमावस्या
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मा है’इतना याद रहना बहुत लाभकी बात है ! यह बहुत सुगम तथा श्रेष्ठ ध्यान है । संसारमें जो है’-पना दीखता है, वह परमात्माका ही है, संसारका नहीं । संसार तो एक क्षण भी नहीं टिकता । इसमें खुदमें है’-पना है ही नहीं । परमात्माका है’-पना ही संसारमें दीखता है । है’- रूपसे सब जगह परमात्मा ही है । अगर परमात्मा न हो तो संसार दीखे ही नहीं । जैसे आकाशमें बादल छा जाते हैं, बिजली चमकती है, वर्षा होती है, पर आकाश ज्यों-का-त्यों अटल, निर्विकार रहता है । उस है’-रूप परमात्माका अंश ही यह जीवात्मा है । इसीलिये कहा जाता है कि मुक्ति होती नहीं, मुक्ति है । बन्धन (भूल) -के मिटनेको मुक्ति होना कहते हैं । वास्तवमें बन्धन अनित्य है । एक बार बन्धन मिटनेके बाद पुनः कथन नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४ । ३५)

परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक है । उसका अनुभव करनेके लिये पहले दृढ़तासे मान लें कि परमात्मा है’ । पीछे माना हुआ अनुभवमें आ जायगा । संसारकी सत्ताको लेकर ही दुःख है । संसारकी सत्ता हटते ही दुःख हट जायगा, आनन्द रह जायगा । इसका पता कैसे लगे ? जो सत्संग नहीं करते, उनका धन आदि नष्ट हो जाय तो वे बड़े दुःखी हो जाते हैं । परन्तु सत्संग करनेवालोंमें दुःख, चिन्ता, भय आदि कम होते हैं । जितने-जितने कम होते हैं, उतना-उतना उनको चेत, होश हुआ है । सुख स्वतः है, दुःख बनावटी है ।
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आपके द्वारा किसीका अहित नहीं होना चाहिये । दूसरेके अहितकी बात सोचना पारमार्थिक मार्गमें बड़ी भारी बाधा है । यह दूसरेका नुकसान नहीं है, प्रत्युत अपना नुकसान है । दूसरेका नुकसान तो उतना ही होगा, जितना उसके प्रारब्धमें है, पर अपना नुकसान नया होगा । दूसरेके नुकसानमें उसके पाप नष्ट होंगे, जिससे उसका हित होगा; परन्तु हमारा नया कर्म (पाप) बनेगा, जिससे हमारा अहित होगा । इसलिये वास्तवमें अहित उसीका होता है, जो दूसरेका अहित करता है ।

अगर आप अपना जीवन शुद्ध, निर्मल बनाना चाहते हैं तो किसीका भी बुरा न करें । बुराई न करना भलाईका बीज है । बुराई छोड़नेमात्रसे आप भले हो जाओगे । एक गहरी बात है कि करने’ में तो परिश्रम होता है, पर न करने’ में परिश्रम नहीं होता । भला करनेमें तो परिश्रम है, पर किसीका बुरा न करनेमें कोई परिश्रम नहीं है । करने’ की अपेक्षा न करना’ सुगम होता है । न करने’ में न तो परिश्रम होता है, न पैसे खर्च होते हैं । किसीका बुरा करना, किसीका बुरा चाहना और किसीको बुरा समझना‒ये तीन बातें आप बिल्कुल न करें । केवल यह सावधानी रखनी है कि हमारेसे किसीका अहित न हो जाय । किसीका भी बिगाड़ होता है, वह अपना ही होता है । किसीका बुरा नहीं करेंगे, किसीका बुरा नहीं चाहेंगे और किसीको बुरा नहीं समझेंगे‒इन तीन बातोंका आप नियम ले लो तो आपका कर्मयोग’ सिद्ध हो जायगा । आपका सत्संग करना सफल हो जायगा । आप सत्संग करते हो । सत्संग करनेवालेसे सब लोग अच्छाईकी आशा रखते हैं । 

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे