।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७४, मंगलवार
चैत्र नवरात्रारम्भ
‘साधारण’ नाम नवसवंत्सर प्रारम्भ
गीतामें जातिका वर्णन



जन्मना मन्यते जातिः कर्मणा मन्यते कृतिः ।
तस्मात् स्वकीयकर्तव्यं  पालनीयं  प्रयत्नतः ॥

 ऊँच-नीच योनियोंमें जितने भी शरीर मिलते हैं, वे सब गुण और कर्मके अनुसार ही मिलते हैं (१३ । २१; १४ । १६, १८) । गुण और कर्मके अनुसार ही मनुष्यका जन्म होता है अर्थात् पूर्वजन्ममें मनुष्यके जैसे गुण थे और उसने जैसे कर्म किये थे, उनके अनुसार ही उसका जन्म होता है । भगवान्‌ने गीतामें कहा है कि प्राणियोंके गुणों और कर्मोंके अनुसार ही मैनें चारों वर्णों‒(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒) की रचना की है‒‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः (४ । १३) । अतः गीता जन्म-(उत्पत्ति-) से ही जाति मानती है अर्थात् जो मनुष्य जिस वर्णमें जिस जातिके माता-पितासे पैदा हुआ है, उसीसे उसकी जाति मानी जाती है ।

‘जाति’ शब्द ‘जनी प्रादुर्भावे’ धातुसे बनता है, इसलिये जन्मसे ही जाति मानी जाती है, कर्मसे नहीं । कर्मसे तो ‘कृति’ होती है, जो ‘कृ’ धातुसे बनती है । परंतु जातिकी पूर्ण रक्षा उसके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे ही होती है ।

भगवान्‌ने (१८ । ४१में) जन्मके अनुसार ही कर्मोंका विभाग किया है । मनुष्य जिस वर्ण-(जाति-) में जन्मा है और शास्त्रोंने उस वर्णके लिये जिन कर्मोंका विधान किया है, वे कर्म उस वर्णके लिये ‘स्वधर्म’ हैं और उन्हीं कर्मोंका जिस वर्णके लिये निषेध किया है, उस वर्णकके लिये वे कर्म ‘परधर्म’ है । जैसे, यज्ञ कराना, दान लेना आदि कर्म ब्राह्मणके लिये शास्त्रकी आज्ञा होनेसे ‘स्वधर्म’ हैं; परंतु वे ही कर्म क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके लिये शास्त्रका निषेध होनेसे ‘परधर्म’ हैं । स्वधर्मका पालन करते हुए यदि मनुष्य मर जाय, तो भी उसका कल्याण ही होता है; परंतु परधर्म-(दूसरोंके कर्तव्य-कर्म) का आचरण जन्म-मुत्युरूप भयकों देनेवाला है (३ । ३५) । अर्जुन क्षत्रिय थे; अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है । इसलिये भगवान् उनके लिये बड़े स्पष्ट शब्दोंमें कहते हैं कि क्षत्रियके लिये युद्धके सिवाय और कोई कल्याणकारक काम नहीं है (२ । ३१); अगर तू इस धर्ममय युद्धको नहीं करेगा, तो स्वधर्म और कीर्तिका त्याग करके पापको प्राप्त होगा (२ । ३३) ।

भगवान्‌ने गीतामें अपने-अपने वर्णके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेपर बहुत जोर देकर कहा है कि निष्कामभावसे अपने-अपने कर्तव्य-कर्ममें तत्परतासे लगा हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त कर लेता है (३ । १९; १८ । ४५); अपने कर्मोंके द्वारा परमात्माका पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६) । परमात्माका पूजन पवित्र वस्तुसे होता है, अपवित्र वस्तुसे नहीं । अपना कर्म ही पवित्र वस्तु है और दूसरोंका कर्म अपने लिये (निषिद्ध होनेसे) अपवित्र वस्तु है । अतः अपने कर्मसे परमात्माका पूजन करनेसे ही कल्याण होता है और दूसरोंके कर्मसे पतन होता है । अपने कर्म-(स्वकर्म-) को भगवान्‌ने ‘सहज कर्म’ कहा है । सहज कर्मका अर्थ है‒साथमें पैदा हुआ । जैसे, कोई क्षत्रियके घरमें पैदा हुआ तो क्षत्रियके कर्म भी उसके साथ ही पैदा हो गये । अतः क्षत्रियके कर्म उसके लिये सहज कर्म हैं । भगवान्‌ने भी चारों वर्णोंके सहज, स्वभावज कर्मोंका विधान किया है (१८ । ४२‒४४) । इन स्वभावज कर्मोंको करता हुआ मनुष्य पापका भागी नहीं होता (१८ । ४७) । जैसे, स्वतः प्राप्त हुए न्याययुक्त युद्धमें मनुष्योंकी हत्या होती है, पर शास्त्रविहित सहज कर्म होनेसे क्षत्रियको पाप नहीं लगता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे