।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७४, बुधवार
गीतामें जातिका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

मनुष्य जिस जातिमें पैदा हुआ है, उसके अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करनेसे उस जातिकी रक्षा हो जाती है और विपरीत कर्म करनेसे उस जातिमें कर्मसंकर होकर वर्णसंकर पैदा हो जाता है । भगवान्‌ने भी अपने लिये कहा है कि यदि मे अपने वर्णके अनुसार कर्तव्यका पालन न करूँ तो मैं वर्णसंकर पैदा करनेवाला तथा सम्पूर्ण प्रजाका नाश (पतन) करनेवाला बनूँ (३ । २३‒२४) । अतः जो मनुष्य अपने वर्णके अनुसार कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला और पापमय जीवन बितानेवाला मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है (३ । १६) ।

सभी मनुष्योंको चाहिये कि वे अपने-अपने कर्तव्य कर्मोंके द्वारा अपनी जातिकी रक्षा करें । इसके लिये पाँच बातोंका ख्याल रखना जरूरी है‒

(१) विवाह‒कन्याकी लेना और देना अपनी जातिमें ही होना चाहिये, क्योंकि दूसरी जातिकी कन्या लेनेसे रज-वीर्यकी विकृतिके कारण उनकी संतानोंमें विकृति (वर्णसंकरता) आयेगी । विकृत संतानोंमें अपने पूर्वजोंके प्रति श्रद्धा नहीं होगी । श्रद्धा न होनेसे वे उन पूर्वजोंके लिये श्राद्ध-तर्पण नहीं करेंगे, उनको पिण्ड-पानी नहीं देंगे । कभी लोक-लज्जामें आकर दे भी देंगे, तो भी वह श्राद्ध-तर्पण, पिण्ड-पानी पितरोंको मिलेगा नहीं । इससे पितरलोग अपने स्थानसे गिर जायेंगे (१ । ४२) । गीता कहती हैं कि जो शास्त्र-विधिका छोड़कर मनमाने ढंगसे कर्म करता है, उसे न तो अन्तःकरणकी शुद्धिरूप सिद्धि मिलती है, न सुख मिलता है और न परमगतिकी प्राप्ति ही होती है (१६ । २३) । अतः मनुष्यको कर्तव्य-अकर्तव्यके विषयमें शास्त्रको ही सामने रखना चाहिये (१६ । २४) ।

(२) भोजन‒भोजन भी अपनी जातिके अनुसार ही होना चाहिये । जैसे ब्राह्मणके लिये लहसुन, प्याज खाना दोष है; परंतु शूद्रके लिये लहसुन, प्याज खाना दोष नहीं है । यदि हम दूसरी जातिवालेके साथ भोजन करेंगे तो अपनी शुद्धि तो उनमें जायगी नहीं, पर उनकी अशुद्धि अपनेमें जरूर आ जायगी । अतः मनुष्यको अपनी जातिके अनुसार ही भोजन करना चाहिये ।

(३) वेशभूषा‒पाश्चात्य देशका अनुकरण करनेसे आज अपनी जातिकी वेशभूषा प्रायः भ्रष्ट हो गयी है । प्रायः सभी जातियोंकी वेशभूषामें दोष आ गया है, जिससे ‘कौन किस जातिका है’इसका पता ही नहीं लगता । अतः मनुष्यको अपनी जातिके अनुसार ही वेशभूषा रखनी चाहिये ।

 (४) भाषा‒अन्य भाषाओंको, लिपियोंको सीखना दोष नहीं है, पर उनके अनुसार स्वयं भी वैसे बन जाना बड़ा भारी दोष है । जैसे अंग्रेजी सीखकर अपनी वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन अंग्रेजोंका ही बना लेना उस भाषाको लेना नहीं है प्रत्युत अपने-आपकों खो देना है । अपनी वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन वैसे-का-वैसा रखते हुए ही अंग्रेजी सीखना अंग्रेजी भाषा एवं लिपिको लेना है । अतः अन्य भाषाओंका ज्ञान होनेपर भी बोलचाल अपनी भाषामें ही होनी चाहिये ।

(५) व्यवसाय‒व्यवसाय (काम-धंधा) भी अपनी जातिके अनुसार ही होना चाहिये । गीताने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके लिये अलग-अलग कर्मोंका विधान किया है (१८ । ४२‒४४) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे