।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७४, शुक्रवार
गीतामें सैनिकोंके लिये शिक्षा



पालनीयं  स्वकर्तव्यं   धृत्युत्साहसमन्वितैः ।
नित्यत्वादात्मनो मृत्योर्भेतव्यं नैव सैनिकैः ॥

भारतीय शिक्षा यह कह रखी है कि किसी भी समय, किसी भी परिस्थितिमें मनुष्यमें कायरता, डरपोकपना, कर्तव्य-विमुखता आदि किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने चाहिये, प्रत्युत मनुष्यको प्रत्येक परिस्थितिमें उत्साहित रहना चाहिये । अठारहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें ‘सात्त्विक कर्ता’ के लक्षण बताते हुए भगवान्‌ने छः बातें कही हैं‒ आसक्ति और अहंकार‒इन दो बातोंका त्याग करना, धैर्य और उत्साह‒इन दो बातोंको धारण करना तथा सिद्धि और असिद्धि‒इन दो बातोंमें निर्विकार रहना । इन छः बातोंमेंसे मनुष्यमात्रके लिये दो बातें मुख्य हैं‒ धैर्य और उत्साह । कर्तव्यरूपसे जिस कार्यको स्वीकार किया है, उसमें डटे रहना ‘धैर्य’ है और उस स्वीकृतिके अनुसार कार्यमें प्रवण, तत्पर रहना ‘उत्साह’ है ।

जैसे पर्वत अचल होता है, ऐसे ही सैनिकको अपने कर्तव्य-कर्ममें अचल रहना चाहिये । किसी भी विपरीत अवस्था, परिस्थिति आदिमें किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होना चाहिये । कारण कि शरीर तो प्रतिक्षण ही मर रहा है, मौतमें जा रहा है; और स्वयं अमर है, वह कभी मरता ही नहीं (२ । २३‒२५) । अतः मरनेसे कभी भी डरना नहीं चाहिये । दूसरी बात, अपने कर्तव्यका पालन करते हुए मर भी जाय तो उसमें कल्याण है‒‘स्वधर्में निधनं श्रेयः’ (३ । ३५) । परंतु अपने कर्तव्यसे च्युत होनेमें भय है अर्थात् इस लोकमें भी अपमान, तिरस्कार, हानि है और परलोकमें भी दुर्गति है‒‘परधर्मो भयावहः’ (३ । ३५) । अतः जो युद्ध कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हो जाय, उसे करनेमें विशेष उत्साह रहना चाहिये । सैनिकोंके लिये युद्धके समान कल्याणकारक दूसरा कोई धर्म नहीं है; अतः वे सैनिक बड़े भाग्यशाली है, जिनको अनायास धर्मयुक्त युद्ध प्राप्त हो जाता है (२ । ३१‒३२) ।

अपने कर्तव्यके पालनमें बहुत उत्साह होना चाहिये । किसी कार्यमें प्रतिदिन सफलता-ही-सफलता होती हो तो उसमें जैसा उत्साह रहता है, वैसा ही उत्साह विफलता होनेपर भी अपने कर्तव्यके पालनमें रहना चाहिये । अपने कर्तव्य-पालनके सामने कार्यकी सिद्धि-असिद्धि, सफलता-विफलता आदिका कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि वास्तवमें लौकिक सफलता भी विफलता है और विफलता भी विफलता है । परंतु अपने कर्तव्यका पालन करते हुए सफलता आ जाय तो भी सफलता है और विफलता आ जाय तो भी सफलता है (२ । ३७) । खुदीराम बोसको जब फाँसीका हुक्म हुआ था तब उनके शरीरका वजन बढ़ गया था; क्योंकि उनके मनमें अपने कर्तव्यका ही विचार था, सफलता या विफलताका नहीं ।

हमारे भारतवर्षके सैनिकोंका युद्धमें इतना उत्साह रहता था कि सिर धड़से अलग हो जानेपर भी वे शत्रुओंको मारते रहते थे । शूरवीर सैनिकोंके शरीरमें घाव हो जानेपर भी उनका उत्साह बढ़ता ही रहता है । पीड़ाका भान होनेपर भी उन्हें दुःख नहीं होता, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करनेमें एक सुख होता है, जो उनके उत्साहको बढ़ाता रहता है । ऐसे शूरवीर सैनिकोंके उत्साहका दूसरे सैनिकोंपर भी असर पड़ता है । उन उत्साही शूरवीर सैनिकोंके वचनोंको सुनकर कायर भी उत्साही हो जाते हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे