।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७४, शुक्रवार
प्रार्थना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

आपने वृत्रासुर, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधर वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ आदिका भी उद्धार कर दिया, यह देखकर हमारी हिम्मत होती है कि आप हमारा भी उद्धार करेंगे । जैसे अत्यंत लोभी आदमी कूड़े-कचड़ेमें पड़े पैसेको भी उठा लेता है, ऐसे ही आप भी कूड़े-कचड़ेमें पड़े हम-जैसोंको उठा लेते हो । थोड़ी बातसे ही आप रीझ जाते हो–‘तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें’ (मानस, बालकाण्ड ३४२/२) । कारण कि आपका स्वाभाव है–

रहती न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
                                                (मानस,बालकाण्ड २९/३)

अगर आपका ऐसा स्वाभाव न हो तो हम आपके नजदीक भी न आ सकें; नजदीक आनेकी हिम्मत भी न हो सके ! आप हमारे अवगुणोंकी तरफ देखते ही नहीं । थोड़ा भी गुण हो तो आप  उस तरफ देखते हो । वह थोड़ा भी आपकी दृष्टिसे है । हे नाथ ! हम विचार करें तो हमारेमें राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, अभिमान आदि कितने ही दोष भरे पड़े हैं ! हमारेसे आप ज्यादा जानते हो, पर जानते हुए भी आप उनको मानते नहीं–‘जन अवगुन प्रभु मान न काऊ’, इसीसे हमारा काम चलता है प्रभो ! कहीं आप देखने लग जाओ कि यह कैसा है, तो महाराज ! पोल-ही-पोल निकलेगी !

हे नाथ ! बिना आपके कौन सुननेवाला है ? कोई जाननेवाला भी नहीं है ! हनुमान्‌जी विभीषणसे कहते हैं कि मैं चंचल वानरकुलमें पैदा हुआ हूँ । प्रातःकाल जो हमलोगोंका नाम भी ले ले तो उस दीन उसको भोजन न मिले ! ऐसा अधम होनेपर भी भगवान्‌ने मेरेपर कृपा की, फिर तुम तो पवित्र ब्राह्मणकुलमें पैदा हुए हो ! कानोंसे ऐसी महिमा सुनकर ही विभीषण आपकी शरणमें आये और बोले–

श्रवन सुजसु सुनी आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरती हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
                                         (मानस, सुन्दरकाण्ड ४५)

         जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी आप रक्षा करते हो, उसको सुख देते हो, यह आपका स्वाभाव है–

    ऐसो उदार को जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं ॥
                                              (विनयपत्रिका १६२)

यहि दरबार दीन को आदर, रीति सदा चलि आई ।
                                           (विनयपत्रिका १६५/५)

हरेक दरबारमें दीनका आदर नहीं होता । जबतक हमारे पास कुछ धन-सम्पत्ति है, कुछ गुण है, कुछ योग्यता है तभीतक दुनिया हमारा आदर करती है । दुनिया तो हमारे गुणोंका आदर करती है, हमारा खुदका (स्वरूपका) नहीं । परन्तु आप हमारा खुदका आदर करते हो, हमें अपना अंश मानते हो–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तरकाण्ड ८६/२) । हमें अपना अंश मानते ही नहीं, स्पष्टतया जानते हो और अपना जानकर कृपा करते हो । हमारे अवगुणोंकी तरफ आप देखते ही नहीं  । बच्‍चा कैसा ही हो, कुछ भी करे, पर ‘अपना है’–यह जानकर माँ कृपा करती है, नहीं तो मुफ्तमें कौन आफत मोल ले महाराज ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)            
 –‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे