।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
                         श्रीराधाष्टमी
        अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


श्रीराधाष्टमीकी हार्दिक बधाई हो !!
ये राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि उत्पन्न और नष्ट होते हैं, आते और जाते हैं । परन्तु आप उत्पन्न-नष्ट होते हो और आते-जाते हो क्या ? नहीं । तो फिर ये (राग-द्वेषादि दोष) आपसे अलग हुए न ? अलग होनेसे ये आपमें नहीं हैं–यह बात दृढ़ हुई । अतः दृढ़तासे यह विचार होना चाहिये कि ये मेरेमें नहीं हैं । अगर ये आपमें होते तो जबतक आप रहते तबतक ये भी रहते और आप न रहते तो ये भी न रहते । परन्तु आप तो रहते हो और ये नहीं रहते । ये आगन्तुक हैं, आप आगन्तुक थोड़े ही हैं ! आपका भाव (होनापन) तो निरन्तर रहता है । गाढ़ नींदमें ‘मैं हूँ’ ऐसा स्पष्टभाव नहीं होता तो भी जगनेपर यह भाव होता है कि अभीतक मैं सोया था, अब जग गया हूँ । मैं सोया था, उस समय मेरा अभाव था, यह नहीं दीखता । अपना भाव तो निरन्तर अपने अनुभवमें आ रहा है और इन दोषोंका आगन्तुकपना प्रत्यक्ष हमारे अनुभवमें आ रहा है । इसका भाव और अभाव–दोनों हमारी समझमें आते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि ये राग-द्वेष आदि आपके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आपके मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें आते हैं । परन्तु शरीरको मैं-मेरा माननेसे इनके साथ अपने सम्बन्धका अभाव नहीं दीखता ।

देखो, एक बात बतायें । आप ध्यान देकर सुनें । हमारेको संसारके जितने भी ज्ञान होते हैं, वे सब सांसारिक पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणको साथ लेकर ही होते हैं । परन्तु स्वयंका बोध शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणको साथ लेनेसे नहीं होता । अब यह जो बात है कि अन्तःकरण शुद्ध होनेसे संसारका ज्ञान साफ होगा, पर स्वरूपका बोध कैसे होगा ? इसपर शंका करो ।

श्रोता–महाराजजी ! अन्तःकरण शुद्ध होनेसे अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा तो बोध अपने-आप हो जायगा ।

स्वामीजी–जड़-चेतनका, सत्-असत्‌का, नित्य-अनित्यका जो विवेक है, उस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही बोध नहीं हो रहा है । विवेकको महत्त्व देनेसे अविवेक मिट जायगा और बोध हो जायगा । वह विवेक आपमें हैं और अभी है । उस विवेकको आपने प्रकाशित नहीं किया, उसको आपने उद्बुद्ध नहीं किया, उसको जाग्रत नहीं किया, उसका आदर नहीं किया, उसको महत्त्व नहीं दिया–यह गलती हुई । अन्तःकरण शुद्ध होनेसे क्या हो जायगा ? शुद्ध होनेसे एक बात है कि इधर (पारमार्थिक) रुचि हो जायगी, और कुछ नहीं ।

एक बड़ी मार्मिक बात है, जिस तरफ साधकका ध्यान नहीं जाता । परमात्मतत्त्वका अथवा स्वरूपका बोध करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है । इसलिये करण शुद्ध हो या अशुद्ध, उससे विमुख होनेसे वह बोध हो जायगा । 

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे