।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४, रविवार
    भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय



भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय

१.   भगवत्प्राप्तिकी सच्ची लगन होना

(गत ब्लॉगसे आगेका)

 (७)

अगर घरमें कोई आदमी भूखा हो तो आप उसको दाल, भात, हलवा, पूरी आदि कुछ भी बनाकर दे सकते हैं, पर भूख नहीं दे सकते । भूख तो उसकी खुदकी चाहिये । इसी तरह उत्कट अभिलाषा खुदकी चाहिये । उत्कट अभिलाषा होनेपर भगवत्प्राप्तिमें देरीका कारण ही नहीं है । आप देखनेको तैयार और भगवान् दीखनेको तैयार, फिर देरीका कारण क्या है ?

(८)

बिलकुल शास्त्रसम्मत बात है कि क्रियाओंके द्वारा भगवान्‌पर कब्जा नहीं कर सकते । कितनी ही योग्यता प्राप्त कर लें, उनपर अधिकार नहीं जमा सकते । कारण कि इनके द्वारा अधिकार उसीपर होता है, जो इनसे कमजोर होता है । सौ रुपयोंके द्वारा हम उसी चीजपर कब्जा कर सकते हैं, जो सौ रुपयोंसे कम कीमतकी है । कोई चीज सौ रुपयोंकी है तो हम एक सौ पचीस रुपये देकर उस चीजपर कब्जा कर सकते हैं । ऐसे ही भगवान्‌को किसी योग्यतासे खरीदेंगे तो उस योग्यतासे कमजोर भगवान् ही मिलेंगे । अतः ये विरक्त हैं, ये त्यागी हैं, ये विद्वान् हैं, ये बड़े हैं, इनको भगवान् मिलेंगे, हमारेको नहीं‒यह धारणा बिलकुल गलत है । अगर आप भगवान्‌के लिये व्याकुल हो जाओ, उनके बिना रह न सको, तो बड़े-बड़े पण्डित और बड़े-बड़े विरक्त तो रोते रहेंगे, पहले आपको भगवान् मिलेंगे ! आप भगवान्‌के बिना रह नहीं सकोगे तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे !

(९)

एक बातपर आप विशेष ध्यान दें । हमारे अन्तःकरणकी शुद्धि होगी, तब तत्त्वको जानेगे‒यह है भविष्यकी आशा । तत्त्व भूत, भविष्य और वर्तमान‒तीनोंमें है और तीनोंसे अतीत है । ऐसा कोई देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि नहीं, जिसमें तत्त्व न हो । उस तत्त्वमें देश, काल, वस्तु आदि कुछ नहीं है । जब ऐसी बात है तो बताओ कि किस देश, काल, वस्तु, परिस्थिति आदिमें हम उसे नहीं जान सकते अथवा नहीं प्राप्त कर सकते ? न हमारेमें करण है, न उसमें करण है, फिर उसे जाननेमें देरी क्या ? करणके द्वारा उसे जानना चाहो तो करणकी शुद्धि करनी पड़ेगी, और करणके द्वारा उस तत्त्वको जान सका हो, ऐसा आजतक कोई हुआ नहीं !

तत्त्वको जाननेकी जो वेदान्तकी प्रक्रिया है, उसमें पहले विवेक, वैराग्य, शमादि षट्‌सम्पत्ति और मुमुक्षा‒ये साधन-चतुष्टय सम्पन्न होता है । फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन‒ये तीन साधन करने पड़ते हैं । इसके बाद तत्त्वपदार्थका संशोधन होता है । तत्त्वपदार्थ-संशोधनके बाद सबीज समाधि होती है । यहाँतक अन्तःकरण (प्रकृति)-का साथ है । अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर निर्बीज समाधि होती है । जब निर्बीज समाधि होगी, तब तत्त्व-साक्षात्कार होगा । यह प्रक्रिया अन्तःकरणके द्वारा तत्त्वकी ओर जानेके लिये है । पर हम कहते हैं कि इतना सब करनेकी आवश्यकता नहीं, तत्त्वमें अभी-अभी ही स्थिति हो सकती है ! केवल उसको प्राप्त करनेकी चाहना, उत्कण्ठामें कमी है, इसीलिये देर हो रही है । मैं तत्त्वप्राप्तिमें किसीको अयोग्य नहीं मानता हूँ, केवल उसे प्राप्त करनेकी इच्छामें कमी मानता हूँ । इच्छामें कमी न हो तो तत्त्वको जान लेगा‒पक्की बात है ।

तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों है । उसे तत्काल जान सकते हैं । केवल उधर दृष्टि नहीं है । इसे ऐसे समझें‒हम आँखसे सब पदार्थोंको देखते हैं, पर पदार्थोंसे भी पहले हमें प्रकाश दिखायी देता है । पहले नम्बरमें प्रकाश और दूसरे नम्बरमें सब पदार्थ दीखते हैं । कारण कि प्रकाशके अन्तर्गत ही सब कुछ दीखता है । पर लक्ष्य न होनेसे हमारी दृष्टि पहले प्रकाशपर नहीं जाती‒

जो ज्योतियों का ज्योति है, सबसे प्रथम जो भासता ।
अव्यय सनातन दिव्य दीपक,  सर्व  विश्व  प्रकाशता ॥

वह तत्त्व सबसे पहले दीखता है । उसीके अन्तर्गत सब कुछ है । वही सब करणोंको प्रकाशित करता है । उसीके द्वारा सब जाने जाते हैं । इसलिये आप लोगोंसे निवेदन है कि आप अपनेमें तत्त्वप्राप्तिकी अयोग्यता न समझें । आपमें एक ही कमी मैं मानता हूँ वह यह है कि इस तत्त्वको जाननेकी उत्कट अभिलाषा नहीं है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे