।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार             पुत्रदा एकादशी-व्रत
मैं नहीं, मेरा नहीं 


श्रोताहमें क्रोध क्यों आता है और वह कैसे मिटे ?

स्वामीजीजब अपने स्वार्थमें अथवा अपने अभिमानमें बाधा लगे, तब क्रोध आता है । गीतामें आया है‘कामात्कोधोऽभिजायते’ (गीता २ । ६२) ‘कामनासे (बाधा लगनेपर) क्रोध पैदा होता है अतः क्रोध मिटाना हो तो कामना और अभिमानका त्याग कर दो ।

श्रोतासारी सृष्टिमें जितनी शक्ति है, उससे अधिक शक्ति हममें है, इसका क्या मतलब है ?

स्वामीजीइसका मतलब है कि आप चेतन हो, सृष्टि जड़ है । सृष्टि निरन्तर बदलती है, आप निरन्तर एकरूप रहते हो । अग्निकी चिनगारी हो और रुईका ढेर हो तो दोनोंमें कौन बलवान् होता है ? आप परमात्माके साक्षात् अंश हो । परमात्माकी सब शक्ति आपके साथमें है । परन्तु आप मामूली अहंकारके वशमें हो जाते हो, जड़ पदार्थोंको अपना मान लेते हो, तब दुर्दशा होती है !

श्रोताभगवान्ने हमें तीनों गुणोंसे, अपनी मायासे बाँधा है । भगवान् छुड़ुायेंगे, तभी छूटेंगे । साधन करनेसे कुछ नहीं होता !

स्वामीजीअगर साधन करनेसे कुछ नहीं होता तो फिर खाओ-पीओ मत ! खाना-पीना भी जीनेका साधन है !

आप चीजोंको अपनी समझोगे तो बन्धन रहेगा ही, छूटेगा नहीं । आप छोड़ दो तो छूट जायगा । साधु होते हैं तो आपलोगोंके घरोंसे जन्मे हुए ही होते हैं । साधु होनेके बाद घरवालोंका बारह वर्ष भी पत्र न आये तो प्रतीक्षा नहीं होती । कभी मनमें नहीं आती कि हमारे सम्बन्धी जीवित हैं कि मर गये ! आपके घरोंकी कन्या विवाहके बाद दूसरे घरकी हो जाती है और उसी घरको अपना मान लेती है । जब वह दादी-परदादी बन जाती है तो उसको अपने घरकी याद ही नहीं आती ।

श्रोता‒‘मेरा कुछ नहीं है तथा मुझे कुछ नहीं चाहियेऔर ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒इन दोनोंमें मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है ?

स्वामीजीदोनों ही ठीक हैं । ‘मेरा कुछ नहीं है तथा मुझे कुछ नहीं चाहिये’‒यह पहला साधन है और ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒यह अन्तिम साधन है । मूल बात हैमेरा कुछ नहीं है । आप ‘मेरा कुछ नहीं है’‒इस बातका अनुभव कर लोगे तो ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒यह अपने-आप हो जायगा । फिर ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒इसका अनुभव अपने-आप हो जायगा ।

‘मेरा कुछ नहीं है’‒यह बड़ी सार बात है !

श्रोताजिनसे हमारा जन्म हुआ है, वे माँ-बाप भी मेरे कुछ नहीं हैं क्या ?

स्वामीजीबिल्कुल नहीं हैं । अगर वे आपके हैं तो उनको रख लो, मरने मत दो ! उनको अपना मत मानो, पर उनकी सेवा करो । अपना मानकर जो सेवा की जाती है, वह सेवा होती ही नहीं.....होती ही नहीं.....होती ही नहीं ! अपना नहीं माननेसे ही सेवा होती है । अपना माननेसे सेवा नष्ट हो जाती है !

श्रोताभगवान्में हमारा प्रेम, गोपीभाव कैसे हो ?


स्वामीजीकेवल आपकी लगन होनी चाहिये । हरदम, आठों पहर आपकी लगन हो तो हो ही जायगा !

‒‘मैं नहीं, मेरा नहींपुस्तकसे