।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७५, शुक्रवार
श्रीभैरवाष्टमी
दुःख-नाशका उपा



कर्म तीन प्रकारके होते हैं‒शुक्ल (पुण्यकर्म), कृष्ण (पापकर्म) और मिश्रित । साधारण मनुष्योंके तो ये तीन तरहके कर्म होते हैं, पर कर्मफलका त्याग करनेवाले योगीको किसी भी कर्मका भोग नहीं होता‒ ‘कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्’ (योगदर्शन ४/७), ‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित् (गीता १८/१२) । उसके पास सांसारिक सुख-दुःख पहुँचते ही नहीं । जब ये पहुँचते ही नहीं, तो फिर वह सुखी-दुःखी कैसे होगा ? परिस्थिति कर्म-निर्मित है । जैसे कर्म किये, वैसी परिस्थिति सामने आ जाती है, पर वह सुखी-दुःखी नहीं करती । भागवतमें एक कथा आती है । बाल्यावस्थामें नारदजी महाराजकी माँ मर गयी । बालककी माँ मर जाय तो वह बड़ा दुःखी हो जाता है, पर नारदजी दुःखी नहीं हुए, प्रत्युत उन्होंने इसको भगवान्‌का मंगलमय विधान ही माना । नारदजीकी भगवान्‌में रुचि थी । भजनमें माँ बाधक थी; अतः वह मर गयी तो भजनकी बाधा मिट गयी । इसलिये नारदजी राजी हो गये । तात्पर्य है कि परिस्थिति आदमीको दुःखी नहीं करती । वह मूर्खतासे ही दुःख पाता है । सुख-दुःखसे सब-के-सब ऊँचे उठ सकते हैं, इसमें सन्देहकी बात नहीं है ।

दो बातें मूर्खतासे होती हैं कि दुःख तो दूसरेने दे दिया‒‘परो ददातीति’ और सुख मैं अपने उद्योगसे कर लेता हूँ ‒‘अहं करोमीति’ । अगर अपने उद्योगसे सुख होता तो आज कोई दुःखी नहीं होता । दूसरेको दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त है ।

श्रोता‒कोई आदमी किसीके पीछे ही पड़ जाय दुःख देनेके लिये तो वह दुःखमें निमित्त हुआ कि नहीं ?

स्वामीजी‒वह तो मूर्खतामें निमित्त हुआ, दुःख तो उसको मिलनेवाला ही मिलेगा । जो दुःख देनेके लिये पीछे पड़ा है, उसको भयंकर पाप लगेगा और भयंकर दुःख भोगना पड़ेगा । परन्तु जिसको दुःख मिलता है, उसका तो प्रारब्ध है । सर्वसमर्थ और परम सुहृद् परमात्माके जीते-जी कोई दुःख दे सकता है ? मैंने पहले भी एक बात सुनायी थी कि एक नगरके किनारे जंगलमें एक बाबाजी बैठे भजन कर रहे थे । वहाँसे कई आदमी धन लूट करके भाग रहे थे । पुलिस पीछे पड़ी थी । उन्होंने देखा कि मारे जायँगे तो बाबजीके पास धन रखकर छिप गये । पुलिस वहाँ आयी और धन देखकर बाबाजीको मारने लगी । बाबाजी बोले‒ ‘बधूं तू जाणे छे’ ‘हे नाथ ! सब आप जानते हो’ । इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने अपनी जानकारीमें किसीको दुःख दिया नहीं और मार पड़ रही है तो मैं जानता नहीं कि किस कर्मका फल है । हे भगवन्‌ ! आप ही जानो, हमारेको इसका पता नहीं है । बिना कसूर मार पड़ती है, इतनेपर भी उन्होंने किसीको दोष नहीं दिया । अतः जिसको मार पड़ती है, उसमें ऐसा धैर्य चाहिये । दूसरा बेचारा दुःख दे नहीं सकता, हम अपनी मूर्खतासे दुःख पा रहे हैं । एक बात मैं और कहता हूँ । दुःख देनेवाला दुःख दे नहीं सकेगा, प्रत्युत सुख देगा ! मैंने ऐसा देखा है । दूसरा करना चाहता है अनिष्ट और हमारा होता है इष्ट । यह मेरे अनुभवकी बात है ।

श्रोता‒महाराजजी ! सुख-दुःख माना हुआ है, है तो नहीं !


स्वामीजी‒बिलकुल माना हुआ है, तभी तो मिटता है, नहीं तो मिटे कैसे ? सत्‌का कभी अभाव नहीं होता । यदि सुख-दुःखकी सत्ता होती तो वह कभी मिट सकता ही नहीं । अतः सुख-दुःख है नहीं, केवल माना हुआ है । इस मान्यताको छोड़ना है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
दुःख-नाशका उपा



मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि सुख-दुःख देनेके लिये परिस्थितिके पास समय ही नहीं है ! वह बेचारी तो अपनी धुनमें जा रही है, आपको छूती ही नहीं, फिर वह आपको सुख-दुःख कैसे दे सकती है । इसीलिये सत्संगसे, सद्विचारोंसे, सद्भावोंसे आदमी सदा मस्त, मौजमें रह सकता है; क्योंकि परिस्थिति दुःख देती है नहीं । दुःख तो उसको पकड़ करके आप कर रहे हो । अनुकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप सुख मान लेते हो और प्रतिकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप दुःख मान लेते हो, यह गलती होती है आपकी । वास्तवमें परिस्थिति तो जा रही है बेचारी ! दिन-रातकी तरह यह सुखदायी-दुःखदायी परिस्थिति आती रहेगी । जैसे दिनके बाद रात और रातके बाद दिन आता रहता है, ऐसे ही सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता रहेगा ।

मनुष्यके लिये कल्याणकी बात खुली है । मनुष्य-शरीर केवल अपना कल्याण करनेके लिये है, भोग भोगनेके लिये नहीं‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७/४४/१) । सुख-दुःख दो तरहके होते हैं । हमारे पास धन, सम्पत्ति, वैभव, बेटा, पोता, मकान आदि अनुकूल सामग्री है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत सुखी है । हमारे पास सामग्री नहीं है; खानेको अन्न नहीं, पहननेको वस्त्र नहीं, रहनेको मकान नहीं‒ऐसी दशा है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत दुःखी है । एक तो सुख-दुःखकी यह परिभाषा है । दूसरी, जो मनमें हरदम प्रसन्न रहता है, कभी दुःखी नहीं होता, उसको सुखी कहते हैं और जो मनमें दुःखी रहता है, उसको दुःखी कहते हैं । इस प्रकार एक तो सुख-सामग्रीका नाम सुख है और दुःख-सामग्रीका नाम दुःख है तथा एक हृदयमें प्रसन्नताका नाम सुख है और हृदयमें जलनका नाम दुःख है । इनमें सामग्रीवाला सुख-दुःख तो परिस्थितिका है और हृदयका सुख-दुःख मूर्खताका है । इस मूर्खताको मिटानेकी खास जिम्मेवारी मनुष्यके ऊपर है । जैसे किसी भाषाका ज्ञान न हो तो उस अज्ञानको दूर करनेके लिये हम वह भाषा सीख सकते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख हमारेमें है ही नहीं‒इस विद्याको मनुष्यमात्र सीख सकता है । इस ज्ञानके लिये ही मानवशरीर मिला है । अतः मानवशरीरमें आकर सुखी-दुःखी नहीं होना है, प्रत्युत सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना है । ऊँचा उठना क्या होता है ? कि न सुख ही पहुँचता और न दुःख ही पहुँचता है । पातञ्जलयोगदर्शनके व्यासभाष्यमें एक श्लोक आया है‒

प्रज्ञाप्रासादमारुह्याऽशोच्यः शोचतो जनान् ।
भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति ॥
                                       (१/४७ का व्यासभाष्य)

अर्थात्‌ जैसे पर्वतपर खड़ा हुआ मनुष्य नीचे पृथ्वीपर खड़े लोगोंको देखता है, ऐसे ही प्रज्ञारूपी प्रासाद-(महल-)पर खड़ा हुआ अशोच्य पुरुष शोक करनेवाले लोगोंको देखता है ।

समाधि-अवस्थामें योगीकी बुद्धि ऋतम्भरा अर्थात्‌ सत्यको धारण करनेवाली हो जाती है‒‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा’ (योगदर्शन १/४८) । विवेक-विचारसे भी ऐसी बुद्धि प्राप्त हो जाती है । जैसे पृथ्वीपर कभी बाढ़ आती है, कभी आग लगती ही, कभी सुखदायी परिस्थिति आती है, कभी दुःखदायी परिस्थिति आती है, तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर पर्वतपर खड़े हुए मनुष्यके पास उनमेंसे कोई भी परिस्थिति नहीं पहुँचती । वह केवल देखता है, सुखी-दुःखी नहीं होता । इसको सुख-दुःखसे ऊँचा उठना कहते हैं और ऐसी स्थिति आपकी, हमारी सबकी हो सकती है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७५, बुधवार
दुःख-नाशका उपा



सन्तोंसे, शास्त्रोंसे मेरेको ऐसी बातें मिली हैं, जिनसे इस वर्तमान जीवनमें मनुष्यमात्र महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकते हैं । इसमें केश जितना भी सन्देह नहीं है । पुण्यात्मा हो, पापात्मा हो, बुद्धिमान्‌ हो, बुद्धि कम हो, पढ़ा-लिखा हो, अपढ़ हो, भाई हो, बहन हो, सनातनी हो, बुद्ध हो, मुसलमान हो, अँग्रेज हो, कोई क्यों न हो, वह इसी जीवनमें महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकता है । उन बातोंमेंसे एक बात आज विशेषतासे कहता हूँ ।

हम जो सुखी-दुःखी होते हैं, यह हमारी गलती है । इसमें गलती क्या है ? लक्ष्मणजीने अध्यात्मरामायणमें निषादराज गुहसे कहा है‒

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
                        परो ददातीति  कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
                      स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
                                                     (२/६/६)

‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’

यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
                                                   (मानस २/९२/२)

सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है‒यह खास सूत्र है ! दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक आदमीने मेरेको दुःख दे दिया‒यह सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है । इस विषयमें एक बात तो यह है कि परमात्मा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं । ऐसे परमात्माके रहते हुए, उनकी जानकारीमें कोई भी किसीको दुःख दे सकता है क्या ? दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख देता है तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही । कहीं जाओ, किसी भी योनिमें जाओ, देवता बन जाओ, राक्षस बन जाओ, असुर बन जाओ, भूत-प्रेत-पिशाच बन जाओ, मनुष्य बन जाओ, दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।


हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं । पातञ्जलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है । अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और कामकी है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है । वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ?

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७५, मंगलवार
स्त्री-सम्बन्धी बातें



अधिकार प्राप्त करनेकी इच्छा जन्म-मरणका हेतु है और नरकोंमें ले जानेवाली है । हमने देखा है कि एक मोहल्लेका कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसको काटनेके लिये दौड़ता है । दोनों कुत्ते आपसमें लड़ते हैं । आगन्तुक कुत्ता नीचे गिर जाय, पैर ऊपर कर दे, नम्रता स्वीकार कर ले तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसके ऊपर खड़ा होकर राजी हो जाता है । कारण कि वह उस मोहल्लेपर अपना अधिकार मानता है, पर आगन्तुक कुत्ता उस मोहल्लेपर अपना अधिकार नहीं मानता, उसके सामने नम्रता स्वीकार कर लेता है तो लड़ाई मिट जाती है । इससे सिद्ध होता है कि अधिक अधिकार पानेकी लालसा तो कुत्तोंके भीतर भी रहती है । ऐसी ही लालसा यदि मनुष्योंके भीतर भी रहे तो मनुष्यता कैसी ? अधिक अधिकार पानेकी लालसा नीच मनुष्योंमें होती है । जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं, वे अपने कर्तव्यका ही उत्साहपूर्वक तत्परतासे पालन करते हैं । कर्तव्यका पालन करनेसे उनका अधिकार स्वतः ऊँचा हो जाता है ।

वास्तवमें देखा जाय तो स्त्रियोंका अधिकार कम नहीं है । वे घरकी मालकिन, गृहलक्ष्मी कहलाती हैं । घरके जितने भी लोग बाहर काम-धंधा करते हैं, वे आकर स्त्रियोंका ही आश्रय लेते हैं । स्त्रियों घरभरके प्राणियोंको आश्रय देनेवाली होती हैं । वे सबकी सेवा करती हैं, सबका पालन करती हैं । अतः उनका अधिकार ज्यादा है । परन्तु जब वे अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाती हैं, तभी उनके मनमें अधिक अधिकार पानेकी लालसा पैदा होती है ।

प्रश्न‒आजकल मँहगाईके जमानेमें स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है ?

उत्तर‒स्त्रीका हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरीका कष्ट, ताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती । थोड़ी भी विपरीत बात आते ही उसके आँसू आ जाते हैं । नौकरीको चाहे गुलामी कहो, चाहे दासता कहो, चाहे तुच्छता कहो, एक ही बात है । गुलामीको पुरुष तो सह सकता है, पर स्त्री नहीं सह सकती । अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदिका काम पुरुषोंके जिम्मे है और घरका काम स्त्रियोंके जिम्मे है । अतः स्त्रियोंकी प्रतिष्ठा, आदर घरका काम करनेमें ही है । बाहरका काम करनेमें स्त्रियोंका तिरस्कार है । यदि स्त्री प्रतिष्ठासहित उपार्जन करे तो कोई हर्ज नहीं है अर्थात् वह अपने घरमें ही रहकर जीविका-उपार्जन कर सकती है; जैसे‒स्वेटर आदि बनाना, कपडे सीना, पिरोना, बेलपत्ती आदि निकालना, भगवान्‌के चित्र सजाना आदि । ऐसा काम करनेसे वह किसीकी गुलाम, पराधीन नहीं रहेगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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