।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण दशमी, वि.सं. २०७६ बुधवार
एकादशी-व्रत कल है
             वास्तविक गुरु
        

लोग तो गुरुको ढूँढ़ते हैं, पर जो असली गुरु होते हैं, वे शिष्यको ढूँढ़ते हैं । उनके भीतर विशेष दया होती है । जैसे, संसारमें माँका दर्जा सबसे ऊँचा है । माँ सबसे पहला गुरु है । बच्‍चा माँसे ही जन्म लेता है, माँका ही दूध पीता है, माँकी ही गोदीमें खेलता है, माँसे ही पलता है, माँके बिना बच्‍चा पैदा हो ही नहीं सकता, रह ही नहीं सकता, पल भी नहीं सकता । माँ तो वर्षांतक बच्‍चेके बिना रही है । बच्‍चेके बिना माँको कोई बाधा नहीं लगी । इतना होते हुए भी माँका स्वभाव है कि वह आप तो भूखी रह जायगी, पर बच्‍चेको भूखा नहीं रहने देगी । वह खुद कष्ट उठाकर भी बच्‍चेका पालन करती है । ऐसे ही सच्‍चे गुरु होते हैं । वे जिसको शिष्यरूपसे स्वीकार कर लेते हैं, उसका उद्धार कर देते हैं । उनमें शिष्यका उद्धार करनेकी सामर्थ्य होती है । ऐसी बातें मेरी देखी हुई हैं ।

एक सन्त थे । वे दूसरेको शिष्य न मानकर मित्र ही मानते थे । उनके एक मित्रको कोई भयंकर बीमारी हो गयी तो वह घबरा गया । दवाइयोंसे वह ठीक नहीं हुआ । उन सन्तने उससे कहा कि तू अपनी बीमारी मेरेको दे दे । वह बोला कि अपनी बीमारी आपको कैसे दे दूँ ? सन्तने फिर कहा  कि अब मैं कहूँ तो मना मत करना, आड़ मत लगाना; तू आधी बीमारी मेरेको दे दे । उनके मित्रने स्वीकार कर लिया तो उन सन्तने उसकी आधी बीमारी अपनेपर ले ली । फिर बिना दवा किये उसकी पूरी बीमारी मिट गयी । इस प्रकार जो समर्थ होते हैं, वे गुरु बन सकते हैं । परन्तु इतने समर्थ होनेपर भी उन्होंने उम्रभर किसीको चेला नहीं बनाया ।

गुरु बनानेपर उसकी महिमा बताते हैं कि गुरु गोविन्दसे बढ़कर है । इसका नतीजा यह होता है कि चेला भगवान्‌के भजनमें न लगकर गुरुके ही भजनमें लग जाता है ! यह बड़े अनर्थकी, नरकोंमें ले जानेवाली बात है ! यह अच्छे सन्तकी बात है, उनको चेलोंने भगवान्‌से बढ़कर मानना शुरू कर दिया तो उन्होंने चेला बनाना छोड़ दिया और फिर उम्रभरमें कभी चेला बनाया ही नहीं । कारण कि चेले भगवान्‌को तो पकड़ते नहीं, गुरुको ही पकड़ लेते हैं ! गुरुकी बात सुनकर मनुष्य भगवान्‌में लग जाय तो ठीक है, पर वह गुरुमें लग जाय तो बड़ी हानिकी बात है ! चेलेको अपनेमें लगानेवाले कालनेमि अथवा कपटमुनि होते हैं, गुरु नहीं होते । गुरु वे होते हैं, जो चेलेको भगवान्‌में लगाते हैं । भगवान्‌के समान हमारा हित चाहनेवाला गुरु, पिता, माता, बन्धु, समर्थ आदि कोई नहीं है‒

उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥

                                      (मानस, किष्किन्धा. १२/१)