।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. २०७६ रविवार
गुरु बननेका अधिकार किसको ?
        

एक सन्तके पूर्वजन्मकी सच्‍ची घटना है । पूर्वजन्ममें वे एक राजाके मन्त्री थे । उनको वैराग्य हो गया तो वे सब छोड़कर अच्छे विरक्त सन्त बन गये । उनके पास कई साधु आकर रहने लगे । राजाके मनमें भी विचार आया कि मैं इन मन्त्री महाराजको ही गुरु बना लूँ और भजन करूँ । वे जाकर उनके शिष्य बन गये । आगे चलकर जब गुरुजी (पूर्व मन्त्री) का शरीर शान्त हो गया तो उनकी जगह उस राजाको महन्त बना दिया गया । महन्त बननेके बाद राजा भोग भोगनेमें लग गया; क्योंकि भोग भोगनेकी पुरानी आदत थी ही । परिणामस्वरूप वह राजा मरनेके बाद नरकोंमें गया । गुरुजी (पूर्व मन्त्री) ऊँचे लोकोंमें गये थे । नरकोंको भोगनेके बाद जब उस राजाने पुनर्जन्म लिया, तब उसके साथ गुरुजीको भी जन्म लेना पड़ा । फिर गुरुजीने उसको पुनः भगवान्‌में लगाया, पर उनको शिष्य नहीं बनाया, प्रत्युत मित्र ही बनाया । उम्रभरमें उन्होंने किसीको भी शिष्य नहीं बनाया । इस घटनासे सिद्ध होता है कि अगर गुरु अपने शिष्यका उद्धार न कर सके तो उसको शिष्यके उद्धारके लिये पुनः संसारमें आना पड़ता है । इसलिये गुरु उन्हींको बनाना चाहिये, जो शिष्यका उद्धार कर सकें ।

आजकलके गुरु चेलेको भगवान्‌की तरफ न लगाकर अपनी तरफ लगाते हैं, उनको भगवान्‌का न बनाकर अपना बनाते हैं । यह बड़ा भारी अपराध है[1] । एक जीव परमात्माकी तरफ जाना चाहता है, उसको अपना चेला बना लिया तो अब वह गुरुमें अटक गया । अब वह भगवान्‌की तरफ कैसे जायगा ? गुरु भगवान्‌की तरफ जानेमन रुकावट डालनेवाला हो गया ! गुरु तो वह है, जो भगवान्‌के सम्मुख कर दे, भगवान्‌में श्रद्धा-विश्वास करा दे; जैसे‒हनुमान्‌जीने विभीषणका विश्वास अपनेमें न कराकर भगवान्‌में कराया‒

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥
            कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥
अस मैं अधम सखा  सुनु  मोहू  पर  रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥
                                               (मानस, सुन्दर ७)

श्रीशरणनन्दजी महाराजने लिखा है‒

         ‘जो उपदेष्टा भगवद्‌विश्वासकी जगहपर अपने व्यक्तित्वका विश्वास दिलाते हैं और भगवत्सम्बन्धके बदले अपने व्यक्तित्वसे सम्बन्ध जोड़ने देते हैं, वे घोर अनर्थ करते हैं ।’ (प्रबोधिनी)

व्यक्तिमें श्रद्धा-विश्वास करनेकी अपेक्षा भगवान्‌में श्रद्धा-विश्वास करनेसे ज्यादा लाभ होगा, जल्दी लाभ होगा और विशेष लाभ होगा । इसलिये जो गुरु अपनेमें विश्वास कराता है, अपनी सेवा करवाता है, अपनी पूजा करवाता है, अपनी जूठन देता है, अपने चरण धुलवाता है, वह पतनकी तरफ ले जानेवाला है । उससे सावधान रहना चाहिये ।



[1] पाप और अपराधमें फर्क होता है । पापका फल (नरक आदि) भोगानेसे पाप नष्ट हो जाता है, पर जिसका अपराध किया है, उसकी प्रसन्नताके बिना अपराध नष्ट नहीं होता । इसलिये अपराध पपसे भी ज्यादा भयंकर होता है ।