।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ शनिवार
          सब साधनोंका सार

        

मैं शरीर नहीं हूँ

सर्वप्रथम साधकको यह बात अच्छी तरहसे समझ लेनी चाहिये कि मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीररूप नहीं हूँ । हम कहते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । शरीरको देखें तो बचपनसे लेकर आजतक हमारा शरीर इतना बदल गया कि उसको पहचान भी नहीं सकते, फिर भी हम वही हैं‒यह हमारा अनुभव कहता है । बचपनमैं खेलता-कूदता था, बादमें मैं पढ़ता था, आज मैं नौकरी-धन्धा करता हूँ । सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ । कारण कि शरीर एक क्षण भी ज्यों-का-त्यों नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है । तात्पर्य यह हुआ कि जो बदलता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । जो नहीं बदलता, वही हमारा स्वरूप है ।

हमने अबतक असंख्य शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, हम वही रहे । मृत्युकालमें भी शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर अन्य योनियोंमें हम जायँगे, स्वर्ग-नरक आदि लोकोंमें हम जायँगे, मुक्ति हमारी होगी, भगवान्‌के धाममें हम जायँगे । तात्पर्य है कि हमारी सत्ता (होनापन) शरीरके अधीन नहीं है । शरीरके बढ़ने-घटनेपर, कमजोर-बलवान् होनेपर, बालक-बूढा होनेपर अथवा रहने-न-रहनेपर हमारी सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता । जैसे हम किसी मकानमें रहते हैं तो हम मकान नहीं हो जाते । मकान अलग है, हम अलग हैं । मकान वहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । ऐसे ही शरीर यहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । शरीर तो मिट्टी हो जाता है, पर हम मिट्टी नहीं होते । हमारा स्वरूप गीताने इस प्रकार बताया है‒

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि    नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो    न शोषयति मारुतः ॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः   स्थाणुरचलोऽयं   सनातनः ॥
                                            (गीता २/२३-२४)
        
‘शस्त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती । यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता । कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।’

तात्पर्य है कि शरीरका विभाग ही अलग है और न बदलनेवाले शरीरी (स्वरूप)-का विभाग ही अलग है । हमारा स्वरूप किसी शरीरसे लिप्त नहीं है, इसलिये उसको गीतामें भगवान्‌ने सर्वव्यापी कहा है‒‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२/१७), ‘सर्वगतः’ (२/२४) । तात्पर्य है कि स्वरूप एक शरीरमें सीमित नहीं है, प्रत्युत सर्वव्यापी है ।

शरीर पृथ्वीपर ही (माँके पेटमें) बनता है, पृथ्वीपर घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वीमें ही लीन हो जाता है । इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं‒इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वीमें गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी । इसलिये शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप मुख्य है ।


यद्यपि होनापन (सत्ता) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि साधकसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है । ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ? साधकको विचार करना चाहिये कि आत्मा पहले थी या शरीर पहले था ? विचार करनेपर सिद्ध होता है कि आत्मा पहले है और शरीर पीछे है । भाव पहले है और आकृति पीछे है । इसलिये हमारी दृष्टि पहले भावरूप आत्मा (स्वरूप)-की तरफ जानी चाहिये, शरीरकी तरफ नहीं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
                 कुशोत्पाटिनी अमावस्या
          सब साधनोंका सार

        

जीवमात्रका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । वह सत्ता सत्‌-रूप, चित-रूप और आनन्द-रूप है । वह सत्ता नित्य-निरन्तर ज्यों-की-त्यों निर्विकार, असंग रहती है । इस स्वरूपको अर्थात् अपने-आपको जब मनुष्य भूल जाता है, तब उसमें देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है अर्थात् वह अपनेको शरीर मान लेता है । शरीरसे माना हुआ यह सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है ‒१. मैं शरीर हूँ, २. शरीर मेरा है और ३. शरीर मेरे लिये है ।

हमारे देखनेमें दो ही चीजें आती हैं‒नाशवान्‌ (जड़) और अविनाशी (चेतन) । इस दोनोंका विभाग अलग-अलग है । इसीको गीताने शरीर और शरीर, क्षर और अक्षर, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ आदि नामोंसे कहा है । इसीको सन्तोंने ‘नहीं’ और ‘है’ नामसे कहा है । हमारा स्वरूप शरीरी है, चेतन है, अविनाशी है, अक्षर है, क्षेत्रज्ञ है और ‘है’-रूप है । जो हमारा स्वरूप नहीं है, वह शरीर है, जड़ है, नाशवान्‌ है, क्षर है, क्षेत्र है और ‘नहीं’-रूप है । जो ‘है’-रूप है, वह नित्यप्राप्त है और जो ‘नहीं’-रूप है, वह मिलता है और बिछुड़ जाता है ।


एक मार्मिक बात है कि ‘है’ को देखनेसे शुद्ध ‘है’ नहीं दीखता, पर ‘नहीं’ को ‘नहीं’-रूपसे देखनेसे शुद्ध ‘है’ दीख जाता है । कारण यह है कि मैं शुद्ध, बुद्ध और मुक्त आत्मा हूँ‒इस प्रकार ‘है’ पर विचार करनेमें हम मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो ‘है’ के साथ ‘नहीं’ (मन-बुद्धि, वृत्ति, मैं-पन) भी मिला रहेगा । परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है‒इस प्रकार ‘नहीं’ को ‘नहीं’-रूपसे विचार करनेपर वृत्ति ‘नहीं’ में चली जायगी और शुद्ध ‘है’ शेष रह जायगा । उदाहरणार्थ ‒झाड़ूके द्वारा कूड़ा-करकट दूर करनेसे उसके साथ झाड़ूका भी त्याग हो जाता है और साफ मकान शेष रह जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि ‘मैं आत्मा हूँ’‒इसका मनसे चिन्तन तथा बुद्धिसे निश्चय करनेपर वृत्तिके साथ हमारा सम्बन्ध बना रहेगा । परन्तु ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒इस प्रकार विचार करनेपर शरीर और वृत्ति दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और चिन्मय सत्तारूप शुद्ध स्वरूप स्वतः शेष रह जायगा । इसलिये तत्त्वप्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है । निषेधात्मक साधनमें साधकके लिये तीन बातोंका स्वीकार कर लेना आवश्यक है‒मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है । जबतक साधकमें यह भाव रहेगा कि मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है तथा मेरे लिये है, तबतक वह कितना ही उपदेश सुनता रहे और दूसरोंको सुनाता रहे, उसको शान्ति नहीं मिलेगी और कल्याण भी नहीं होगा । इसलिये गीताके आरम्भमें ही भगवान्‌ने साधकके लिये इस बातपर विशेष जोर दिया है कि जो बदलता है, जिसका जन्म और मृत्यु होती है, वह शरीर तुम नहीं हो ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
       अभ्याससे बोध नहीं होता

        

यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ती है, वह अपनी नहीं होती । शरीर मिला है और बिछुड़ जायगा, फिर वह अपना कैसे हुआ ? परमात्मा मिलने तथा बिछुड़नेवाले नहीं हैं । वे सदासे ही मिले हुए हैं और कभी बिछुड़ते ही नहीं । उनका अनुभव नहीं होनेका दुःख नहीं है, इसलिये देरी हो रही है । उनकी असली चाहना नहीं है । असली चाहना होगी तो तत्काल प्राप्ति हो जायगी । परमात्मप्राप्ति शरीरादि जड़ पदार्थोंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत इनके त्यागसे होती है । मन-बुद्धिकी सहायतासे बोध नहीं होता, प्रत्युत इनके त्यागसे बोध होता है ।

योगदर्शनमें अभ्यासका लक्षण बताया है‒

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः । (१/१३)
                 
‘किसी एक विषयमें स्थिति प्राप्त करानेके लिये बार-बार प्रयत्न करनेका नाम अभ्यास है ।’

तत्त्वबोध किसी स्थितिका नाम नहीं है । जहाँ स्थिति होगी, वहाँ गति भी होगी‒यह नियम है । तत्त्व स्थिति और गति‒दोनोंसे अतीत है । तत्त्वमें न स्थिति है, न गति है; न स्थिरता है, न चंचलता है । जैसे भूख और प्यासके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता, ऐसे ही तत्त्वकी जिज्ञासाके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता । हमारी आदत अभ्यास करनेकी पड़ी हुई है, इसलिये अभ्यासकी बात ही हमें जँचती है ।

अभ्यासका मैं खण्डन नहीं करता हूँ । अभ्यास करते-करते और नयी स्थति होते-होते तत्त्वकी जिज्ञासा होकर उसकी प्राप्ति हो सकती है । परन्तु यह बहुत लंबा रास्ता है । कितने जन्म लगेंगे, इसका पता नहीं । अन्तमें भी जब अभ्यास छूटेगा अर्थात् जड़ता (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-से हमारा सम्बन्ध छूटेगा, तब तत्त्वप्राप्ति होगी । तत्त्वप्राप्ति जड़ताके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है‒यह सिद्धान्त है । जड़ताकी सहायताके बिना अभ्यास हो ही नहीं सकता । अतः अभ्यासके द्वारा जड़ताका त्याग नहीं हो सकता । जिसकी सहायतासे अभ्यास करेंगे, उसका त्याग अभ्याससे कैसे होगा ? परन्तु अभ्यासकी बात हरेक आदमीके भीतर जड़से बैठी हुई है, इसलिये बोध होनेमें कठिनता हो रही है । बोध होनेमें अभ्यासको हेतु माननेके कारण जल्दी बोध नहीं हो रहा है ।

यद्यपि भगवन्नामका जप, कीर्तन, प्रार्थना भी अभ्यासके अन्तर्गत आते हैं, तथापि ये अभ्याससे तेज हैं । कारण कि अभ्यासमें अपना सहारा रहता है, पर जप, प्रार्थना आदिमें भगवान्‌का सहारा रहता है । ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ यह पुकार अभ्याससे तेज है । अभ्यासमें अपने उद्योगसे काम होता है, पर पुकारमें भगवान्‌की कृपासे काम होता है । आप अभी अभ्यासके राज्यमें ही बैठे हुए हैं, आपके संस्कार अभ्यासके हैं, इसलिये आप नामजप, कीर्तन, प्रार्थनामें लग जाओ तो आपको बहुत लाभ होगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. २०७६ बुधवार
       अभ्याससे बोध नहीं होता

        

अपने भीतर अभ्यासके संस्कार पड़े हुए हैं, इसलिये प्रत्येक व्यक्तिके भीतरसे यह प्रश्न उठता है कि अब क्या करें ? आपने कहा, हमने सुन लिया, अब क्या करें ?‒यह बाकी रहेगा । अगर तत्काल प्राप्ति चाहते हो तो ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह बात मान लो । एक आदमीने दूसरेसे कहा कि दो और दो कितने होते हैं‒इसका सही उत्तर दोगे तो सौ रुपये दूँगा । दूसरेने कहा‒चार होते हैं । पहला आदमी बोला कि नहीं होते ! वह बार-बार कहे कि दो और दो चार होते हैं, पर पहला आदमी बार-बार यही कहे कि नहीं होते ! अब उसको कोई कैसे समझाये ? वह समझना ही नहीं चाहता ।

आपको इतनी ही बात समझनी है कि मैं शरीर नहीं हूँ । आप ‘घड़ी मेरी है’‒यह तो कहते हैं, पर ‘मैं घड़ी हूँ’‒यह नहीं कहते । परन्तु शरीरके विषयमें आप ‘शरीर मेरा है’ ‒यह भी कहते हैं और ‘मैं शरीर हूँ’‒यह भी कहते हैं । ‘मैं शरीर हूँ’‒यह शरीरके साथ अभेदभावका सम्बन्ध है और ‘शरीर मेरा है’‒यह शरीरके साथ भेदभावका सम्बन्ध है । आपको कोई एक बात कहनी चाहिये, चाहे अभेदभावका सम्बन्ध कहो, चाहे भेदभावका सम्बन्ध कहो । एक ही शरीरको ‘मैं’ भी कहना और ‘मेरा’ भी कहना गलती है ।

प्राणी चौरासी लाख योनियोंमें जाता है तो एक शरीरको छोड़ता है, तभी दूसरे शरीरमें जाता है । जब चौरासी लाख योनियोंके शरीर हमारे साथ नहीं रहे तो फिर यह शरीर हमारे साथ कैसे रहेगा ? वे शरीर हमारे नहीं हुए तो यह शरीर हमारा कैसे हो जायगा ? शरीर तो छूटेगा ही । अतः सीधी-सरल बात है कि शरीर मैं नहीं हूँ । इसमें अभ्यासका काम नहीं है ।

जबतक अहंभाव (मैंपन) रहेगा, तबतक बोध नहीं होगा । अहम् मिटनेपर ही ब्राह्मी स्थिति होती है‒

निर्ममो  निरहंकारः      स  शान्तिमधिगच्छति ॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
                                               (गीता २/७१-७२)


अहंकार अपरा प्रकृति है और स्वयं परा प्रकृति है । परा प्रकृतिका सम्बन्ध परमात्माके साथ है, अपराके साथ नहीं । अहंकारको पकड़नेसे बोध कैसे होगा ? बहुत वर्ष पहलेकी बात है । एक बार मैं कहा कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) कहना ठीक नहीं है; ‘अहं ब्रह्मास्ति’ (मैं ब्रह्म है)‒ऐसा कहना चाहिये ! व्याकरणकी दृष्टिसे ऐसा कहना अशुद्ध है; क्योंकि ‘अहम्’ के साथ ‘अस्मि’ ही लगेगा, ‘अस्ति’ नहीं । परन्तु मेरे कहनेका तात्पर्य था कि ‘अहम्’ साथमें रहेगा तो बोध नहीं होगा । ‘अहं नास्ति, ब्रह्म अस्ति’ (मैं नहीं हूँ, ब्रह्म है)‒ऐसा विभाग कर लो तो समझमें आ जायगा । ‘अस्मि’ रहेगा तो अहंकार साथमें रहेगा ही । यह अहंकार अभ्याससे कभी छूटेगा नहीं, चाहे बीसों वर्ष अभ्यास कर लो । यह मार्मिक बात है ।

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