।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं. २०७६ बुधवार
       अभ्याससे बोध नहीं होता

        

अपने भीतर अभ्यासके संस्कार पड़े हुए हैं, इसलिये प्रत्येक व्यक्तिके भीतरसे यह प्रश्न उठता है कि अब क्या करें ? आपने कहा, हमने सुन लिया, अब क्या करें ?‒यह बाकी रहेगा । अगर तत्काल प्राप्ति चाहते हो तो ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह बात मान लो । एक आदमीने दूसरेसे कहा कि दो और दो कितने होते हैं‒इसका सही उत्तर दोगे तो सौ रुपये दूँगा । दूसरेने कहा‒चार होते हैं । पहला आदमी बोला कि नहीं होते ! वह बार-बार कहे कि दो और दो चार होते हैं, पर पहला आदमी बार-बार यही कहे कि नहीं होते ! अब उसको कोई कैसे समझाये ? वह समझना ही नहीं चाहता ।

आपको इतनी ही बात समझनी है कि मैं शरीर नहीं हूँ । आप ‘घड़ी मेरी है’‒यह तो कहते हैं, पर ‘मैं घड़ी हूँ’‒यह नहीं कहते । परन्तु शरीरके विषयमें आप ‘शरीर मेरा है’ ‒यह भी कहते हैं और ‘मैं शरीर हूँ’‒यह भी कहते हैं । ‘मैं शरीर हूँ’‒यह शरीरके साथ अभेदभावका सम्बन्ध है और ‘शरीर मेरा है’‒यह शरीरके साथ भेदभावका सम्बन्ध है । आपको कोई एक बात कहनी चाहिये, चाहे अभेदभावका सम्बन्ध कहो, चाहे भेदभावका सम्बन्ध कहो । एक ही शरीरको ‘मैं’ भी कहना और ‘मेरा’ भी कहना गलती है ।

प्राणी चौरासी लाख योनियोंमें जाता है तो एक शरीरको छोड़ता है, तभी दूसरे शरीरमें जाता है । जब चौरासी लाख योनियोंके शरीर हमारे साथ नहीं रहे तो फिर यह शरीर हमारे साथ कैसे रहेगा ? वे शरीर हमारे नहीं हुए तो यह शरीर हमारा कैसे हो जायगा ? शरीर तो छूटेगा ही । अतः सीधी-सरल बात है कि शरीर मैं नहीं हूँ । इसमें अभ्यासका काम नहीं है ।

जबतक अहंभाव (मैंपन) रहेगा, तबतक बोध नहीं होगा । अहम् मिटनेपर ही ब्राह्मी स्थिति होती है‒

निर्ममो  निरहंकारः      स  शान्तिमधिगच्छति ॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
                                               (गीता २/७१-७२)


अहंकार अपरा प्रकृति है और स्वयं परा प्रकृति है । परा प्रकृतिका सम्बन्ध परमात्माके साथ है, अपराके साथ नहीं । अहंकारको पकड़नेसे बोध कैसे होगा ? बहुत वर्ष पहलेकी बात है । एक बार मैं कहा कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) कहना ठीक नहीं है; ‘अहं ब्रह्मास्ति’ (मैं ब्रह्म है)‒ऐसा कहना चाहिये ! व्याकरणकी दृष्टिसे ऐसा कहना अशुद्ध है; क्योंकि ‘अहम्’ के साथ ‘अस्मि’ ही लगेगा, ‘अस्ति’ नहीं । परन्तु मेरे कहनेका तात्पर्य था कि ‘अहम्’ साथमें रहेगा तो बोध नहीं होगा । ‘अहं नास्ति, ब्रह्म अस्ति’ (मैं नहीं हूँ, ब्रह्म है)‒ऐसा विभाग कर लो तो समझमें आ जायगा । ‘अस्मि’ रहेगा तो अहंकार साथमें रहेगा ही । यह अहंकार अभ्याससे कभी छूटेगा नहीं, चाहे बीसों वर्ष अभ्यास कर लो । यह मार्मिक बात है ।