।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
                 कुशोत्पाटिनी अमावस्या
          सब साधनोंका सार

        

जीवमात्रका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । वह सत्ता सत्‌-रूप, चित-रूप और आनन्द-रूप है । वह सत्ता नित्य-निरन्तर ज्यों-की-त्यों निर्विकार, असंग रहती है । इस स्वरूपको अर्थात् अपने-आपको जब मनुष्य भूल जाता है, तब उसमें देहाभिमान उत्पन्न हो जाता है अर्थात् वह अपनेको शरीर मान लेता है । शरीरसे माना हुआ यह सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है ‒१. मैं शरीर हूँ, २. शरीर मेरा है और ३. शरीर मेरे लिये है ।

हमारे देखनेमें दो ही चीजें आती हैं‒नाशवान्‌ (जड़) और अविनाशी (चेतन) । इस दोनोंका विभाग अलग-अलग है । इसीको गीताने शरीर और शरीर, क्षर और अक्षर, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ आदि नामोंसे कहा है । इसीको सन्तोंने ‘नहीं’ और ‘है’ नामसे कहा है । हमारा स्वरूप शरीरी है, चेतन है, अविनाशी है, अक्षर है, क्षेत्रज्ञ है और ‘है’-रूप है । जो हमारा स्वरूप नहीं है, वह शरीर है, जड़ है, नाशवान्‌ है, क्षर है, क्षेत्र है और ‘नहीं’-रूप है । जो ‘है’-रूप है, वह नित्यप्राप्त है और जो ‘नहीं’-रूप है, वह मिलता है और बिछुड़ जाता है ।


एक मार्मिक बात है कि ‘है’ को देखनेसे शुद्ध ‘है’ नहीं दीखता, पर ‘नहीं’ को ‘नहीं’-रूपसे देखनेसे शुद्ध ‘है’ दीख जाता है । कारण यह है कि मैं शुद्ध, बुद्ध और मुक्त आत्मा हूँ‒इस प्रकार ‘है’ पर विचार करनेमें हम मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो ‘है’ के साथ ‘नहीं’ (मन-बुद्धि, वृत्ति, मैं-पन) भी मिला रहेगा । परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है‒इस प्रकार ‘नहीं’ को ‘नहीं’-रूपसे विचार करनेपर वृत्ति ‘नहीं’ में चली जायगी और शुद्ध ‘है’ शेष रह जायगा । उदाहरणार्थ ‒झाड़ूके द्वारा कूड़ा-करकट दूर करनेसे उसके साथ झाड़ूका भी त्याग हो जाता है और साफ मकान शेष रह जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि ‘मैं आत्मा हूँ’‒इसका मनसे चिन्तन तथा बुद्धिसे निश्चय करनेपर वृत्तिके साथ हमारा सम्बन्ध बना रहेगा । परन्तु ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒इस प्रकार विचार करनेपर शरीर और वृत्ति दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और चिन्मय सत्तारूप शुद्ध स्वरूप स्वतः शेष रह जायगा । इसलिये तत्त्वप्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है । निषेधात्मक साधनमें साधकके लिये तीन बातोंका स्वीकार कर लेना आवश्यक है‒मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है । जबतक साधकमें यह भाव रहेगा कि मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है तथा मेरे लिये है, तबतक वह कितना ही उपदेश सुनता रहे और दूसरोंको सुनाता रहे, उसको शान्ति नहीं मिलेगी और कल्याण भी नहीं होगा । इसलिये गीताके आरम्भमें ही भगवान्‌ने साधकके लिये इस बातपर विशेष जोर दिया है कि जो बदलता है, जिसका जन्म और मृत्यु होती है, वह शरीर तुम नहीं हो ।