।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन अमावस्या, वि.सं. २०७६ शनिवार
             अमावस्या-श्राद्ध, पितृविसर्जन
भगवान्‌से अपनापन



पिताजीने उनको शुक्राचार्यजीके पुत्र शण्डामर्कके पास भेजा । वहाँपर वे पढाई नहीं करते । गुरूजी जब बाहर जाते, तब वे पाठशाला बना देते । वे राजकुमार थे; अतः सब लडके उनके कहनेसे भजन करते । गुरुजीने देखा कि प्रह्लादजीने तो पाठशालाको भजनशाला बना दिया; अतः वे हिरण्यकशिपुके पास जाकर बोले कि महाराज ! आपका लड़का खुद तो बिगड़ा ही है, दूसरे लड़कोंको भी बिगाड़ रहा है । हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीको बुलाकर पूछा कि तेरी यह खोटी बुद्धि कहाँसे आयी है ? स्वतः पैदा हुई है कि यहाँ किसीने तेरेको सिखायी है ? प्रह्लादजीने कहा कि पिताजी ! ऐसी बुद्धि न तो स्वतः पैदा होती है और न इसको कोई सिखा सकता है । यह तो सन्त-महात्माओंकी कृपासे मिलती है ।

बचपनमें प्रह्लादजीपर नारदजी महाराजकी कृपा हुई थी । प्रह्लादजी जब माँके गर्भमें थे, तब इन्द्रने आकर लूटपाट की और कयाधूको ले गया । हिरण्यकशिपु उस समय तपस्याके लिये वनमें गया हुआ था । जब इन्द्र कयाधूको लेकर जा रहा था, तब रास्तेमें नारदजी मिले । नारदजीने कहा कि इस अबलाको क्यों दुःख दे रहा है ? इस बेचारीने क्या अपराध किया है ? इन्द्र बोला कि महाराज ! इसके पेटमें मेरे शत्रु हिरण्यकशिपुका अंश है । उसने अकेले ही हमें इतना तंग कर दिया है, जब दो हो जायँगे, तब बड़ी मुश्किल हो जायगी ! इसलिए मैं कयाधूको ले जाता हूँ । जब इसका बच्‍चा जन्मेगा, तब मैं उसको मार दूँगा, कयाधूको कुछ नहीं करूँगा । नारदजीने कहा कि इसका जो बच्‍चा होगा, वह तेरा वैरी नहीं होगा । नारदजीकी बात राक्षस, असुर, देवता, मनुष्य सब मानते हैं; क्योंकि वे सन्त जो ठहरे । सन्तोंपर सबका विश्वास होता है । इन्द्रने उनकी बात मान ली और कयाधूको छोड़ दिया । नारदजीने कयाधूको एक कुटियामें रखा और कहा कि बेटी ! तुम चिन्ता मत करो और यहींपर आनंदसे रहो । जैसे पिताके घर लड़की प्यारसे रहती है, ऐसे ही वह भी वहाँ रहने लग गयी । नारदजी उसके गर्भको लक्षमें रखकर भगवान्‌की कथाएँ सुनाते थे । इसके गर्भमें जो बालक है, वह भगवान्‌का भक्त बन जायइस भावसे वे सत्संगकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सुनाते थे ।

                    माता घट रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धारयो अशेष  गर्भ  मांही ज्ञानी भयो ॥


नारदजीका उपदेश माँको तो याद नहीं रहा, पर प्रह्लादजीने गर्भमें ही उस उपदेशको धारण कर लिया । वे वहींसे भक्त बन गये । भक्त बननेसे उनके हृदयमें यह बात आ गयी कि मैं स्वयं तो वास्तवमें परमात्माका ही हूँ और यह शरीर माता-पिताका है । माता-पिता यदि इस शरीरके टुकड़े-टुकड़े भी करें तो भी मेरेको बोलनेका कोई अधिकार नहीं है; क्योंकि शरीर उनका दिया हुआ है । परन्तु मैं स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः परमात्मसे हटानेका इनको अधिकार नहीं है । मैं परमात्माकी तरफ लगूँ और यह शरीर माता-पिताकी सेवामें लगे ।