।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७६ शुक्रवार
          परम शान्तिका उपाय


एक प्रसंग आता है कि एक बार एक साधु बाबा नगरमें भिक्षा करके एक बगीचेमें बैठ गये, तो सायं-कालमें राजा वहाँ आये और साधु बाबासे पूछा कि यहाँ कैसे बैठे हो ? किसी धर्मशाला या सरायमें जाना चाहिये । साधु बाबाने कहा कि यह सराय ही तो है । राजाने कहा कि यह तो मेरी कोठी है । साधु बाबा बोले कि अच्छा आपकी कोठी है । आपसे पहले कौन रहते थे ? राजाने कहा‒‘मेरे पिताजी रहते थे ।’ उससे पहले कौन रहते थे ? बोले कि मेरे दादाजी रहते थे । हम यहाँ पीढियाँसे रहते आये हैं । बाबाने पूछा कि क्या आप इसमें सदा रहोगे ? राजा बोले कि जबतक हम जीवित हैं, तबतक हम रहेंगे, फिर हमारे लड़के रहेंगे । साधु बोले, तो फिर धर्मशाला या सराय किसे कहते हैं ? एक आया, एक गया, यही धर्मशालामें होता है । व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ हमें जो भी मिलते हैं, उनका सदुपयोग करना है, उनपर अधिकार नहीं जमाना है । कबीरदासजीने शरीरको चादर मानकर कहा है‒

कबीरा चादर है झीनीं, सदा राम रस भीनी ।

फिर अन्तमें कहा है ‒

नौ दस मास बुनता  लाग्या,   मूरख   मैली   कीनी,
दास कबीर जुगति से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी ।

इसका अर्थ हुआ कि शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन नहीं करना है । इसका सदुपयोग अपने कल्याणके लिये करना है । इस बातका पक्का विचार कर लें कि यह शरीर, संसारकी वस्तुएँ, सामग्री सब संसारकी हैं और संसारकी सेवाके लिये मिली हैं । इन्हें अपनी न मानकर संसारकी मानें और संसारकी सेवाके लिये मानें । इससे वस्तुओंका सदुपयोग होगा । परन्तु अपनी और अपने लिये मानेंगे, तो वस्तुओंका दुरुपयोग होगा । और दुरुपयोगसे हमें दण्ड भोगना पड़ेगा । इन्हें अपना माननेसे लाभ तो कोई होगा नहीं और हानि किसी तरहकी बाकी रहेगी नहीं । इनपर अपना अधिकार जमाना, कब्जा करना बेईमानी है और यही बन्धन है । ये भगवान्‌की हैं, या संसारकी हैं, या प्रकृतिकी हैं; जिसकी हैं उसकी मानें तो यह मुक्ति है । भक्तियोगमें भगवान्‌की हैं, कर्मयोग में संसारकी हैं और ज्ञानयोगमें प्रकृतिकी हैं । अतः इन्हें अपनी तथा अपने लिये न मानें ।

एक दूसरी बात है कि हम इस शरीर तथा वस्तुओंसे सुख लेना चाहते हैं । परन्तु यह मानव-शरीर तथा इसकी सामग्री सुख तथा भोगके लिये नहीं मिली है ।

एहि तन कर फल बिषय न भाई ।

यह तो दूसरोंको सुख देनेके लिये तथा दूसरोंकी सेवाके लिये मिली है । यदि सुख भोगना चाहो तो स्वर्गमें जाओ, दुःख भोगना चाहो तो नरकमें जाओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना हो तो मनुष्य-शरीरमें आओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचे उठनेपर ही महान्‌ आनन्द, महान्‌ शान्तिकी प्राप्ति होगी । परन्तु यदि सुख चाहोगे तो दुःख भोगना पड़ेगा ही । और यदि सुखकी कामना छोड़ दोगे तो महान्‌ आनन्द और महान्‌ शान्तिकी प्राप्ति होगी । अतः शान्तिका उपाय यह है कि शरीर मैं नहीं हूँ; शरीर, संसार मेरे नहीं है और मेरे लिये भी नहीं हैं । मुझे दूसरोंसे सुख लेना नहीं है अपितु दूसरोंको सुख देना है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


 ‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे